ये सियासत के चश्मे कुछ धुंधले हो गये हैं… चुनावी वादे आजकल सिर्फ जुमले हो गये हैं…

शंकर पांडे ( वरिष्ठ पत्रकार )    

केंद्र सरकार के 3 किसान बिलों के विरोध में छग सरकार विधानसभा का विशेष सत्र बुलवाकर नया बिल बनाने जा रही है, केंद्र की मोदी सरकार के किसान बिलों को किसान विरोधी ठहरा कर उसका व्यापक विरोध भी शुरू कर दिया है… सवाल यह उठ रहा था कि जब देश कोरोना की महामारी से जूझ रहा है, लोगों की असमय मौत हो रही है.. बेरोजगारों के आंकड़े लाखों नहीं करोड़ों में पहुंच रहे हैं, तब ऐसे विषम समय में आखिर ये बिल लाने की जरूरत ही क्या थी… सरकार पर किसका दबाव था कारपोरेट जगत का या किसानों का…. केंद्र सरकार ने न तो कृषि प्रभावित राज्यों से चर्चा की और न ही किसान संगठनों से… फिर लोकसभा के बाद राज्यसभा में इसे पारित करने की क्या जल्दबाजी थी…
पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, म.प्र., छत्तीसगढ़ से लेकर कर्नाटक तक के किसान परेशान है, देशभर में किसान आंदोलन चल रहे हैं, पिछले आधे दशक से किसान अपनी आय को दोगुनी करने के जुमले की बात सुन रहे हैं, किसान अपनी व्यथा सुनाने दिल्ली या प्रांतों की राजधानियों में गये भी पर उनकी सुनवाई नहीं हुई, नोटबंदी के बाद जब उनका कचूमर बना दिया गया तो भारी तादाद में कर्ज से मारे किसान या तो किसानी छोड़कर शहरों की तरफ भागे या आत्महत्या के लिए मजबूर हो गये पर इस ओर ध्यान देने की बजाए मृतकों की राज्यवार तादाद पर डेटा संकलन और सरकार के अपराधिक सेल में अकाल मृत्यु दर्ज करने के पुराने नियम बदल दिये गये ताकि किसानों की आत्महत्या के आंकड़े अलग से दर्ज नहीं मिले… न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी?
यह सच है कि बिना विपक्ष या किसान संगठनों से बातचीत किये मान्य संसदीय व्यवस्थाओं को परे कर सारे किसानी पेशे को ही अमूलचूल कारपोरेट उपक्रम में बदलने वाले महत्वपूर्ण कानून किस लिये आनन-फानन में पास कराए गये… भाजपा शासित राज्यों के किसान भी इस सरकारी नीति के विरोध में क्यों दिख रहे हैं? कुल मिलाकर संघीय लोकतंत्र के बावजूद राज्य सरकारों की लोकतांत्रिक हैसियत लगभग नगण्य ही नजर आ रही है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी के नाम एक रिकार्ड बन गया है। चुनी हुई सरकार (मुख्यमंत्री गुजरात) से लेकर भारत के प्रधानमंत्री तक का 19 साल का सफर पूरा करके वे 20 वें साल में 7 अक्टूबर को प्रवेश कर गये हैं। 7 अक्टूबर 2001 को उन्होंने गुजरात के मुख्यमंत्री का पद सम्हाला था वहीं 22 मई
14 तक वे इस पद पर अनवरत रहे हालांकि उनके मुख्यमंत्री रहने का रिकार्ड उन्हीं की पार्टी के डॉ. रमन सिंह ने छत्तीसगढ़ में तोड़ दिया। बहरहाल 26 मई 2014 को नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने और वे निरंतर हैं। वैसे उनका प्रधानमंत्री रहने का रिकार्ड बनाने में अभी काफी समय लगेगा। 7 अक्टूबर को प्रधानमंत्री के रूप में नरेन्द्र मोदी ने2334 दिन पूरे किये हैं जबकि देश के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहर लालनेहरू 6130 दिन, इंदिरा गांधी 5829 दिन, डॉ. मनमोहन सिंह 3656 दिन, अटल बिहारी वाजपेयी 2272 दिन, राजीव गांधी 1857दिन, पी.वी. नरसिम्हा राव 2229 दिन रहे। जहां तक मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री रहने की बात है तो कई नेता भी रह चुके हैं जो पहले मुख्यमंत्री थे बाद में प्रधानमंत्री बने। मोरारजी भाई देसाई 1655 दिन मुख्यमंत्री तथा 856 दिन प्रधानमंत्री रहे, पी.पी. नरसिम्हा राव 468 दिन मुख्यमंत्री तथा 1761 दिन प्रधानमंत्री रहे, विश्वनाथ प्रताप सिंह 739 दिन मुख्यमंत्री, 346 दिन प्रधानमंत्री, इसतरह सक्रिय रूप से सत्ता में 1082 दिन पद में रहे, एच.डी. देवेगौड़ा 538 दिन मुख्यमंत्री, 324 दिन प्रधानमंत्री कुल 862 दिन, चौधरी चरण सिंह 553 दिन मुख्यमंत्री तथा 178 दिन प्रधानमंत्री कुल 723 दिन रहे तो लालबहादुर शास्त्री 581, आई के गुजराल 332, चंद्रशेखर 223 तथा गुलजारी लाल नंदा 26 दिन बतौर प्रधानमंत्री रहे।
वैसे अपने पहले और दूसरे कार्यकाल में अचानक नोटबंदी,नया जीएसटी लागू करने, कोरोना महामारी काल में करोड़ों के बेरोजगार होने, देश के आर्थिक हालात बिगड़ने , विपक्ष से अच्छे संबंध नहीं, संघीय व्यवस्था में चुनी हुई राज्य सरकारों से बिगड़ते रिश्ते, पड़ोसी देशों से अच्छे संबंध नहीं होने, अपनी ही पार्टी में एकला चलो (अमितशाह को छोड़कर) की नीति के कारण भी नरेन्द्र मोदी जाने जाते रहे

हैं।

मरवाही उपचुनाव और जाति का जिन्न….?  

छत्तीसगढ़ में मरवाही उपचुनाव का मतदान 3 नवंबर को होना है, छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री, पूर्व आईपीएस, आईएएस अजीत जोगी के निधन के बाद यह विधानसभा रिक्त हुई है… छग राज्य गठन के बाद मुख्यमंत्री बने अजीत जोगी ने भाजपा के रामदयाल उइके से यह सीट रिक्त कराकर विधायक बने थे। तब से वे विधायक बनते रहे हैं वैसे एक बार उनका पुत्र अमित जोगी भी मरवाही से रिकार्ड मतों से जीतकर विधायक बन चुके हैं। अजीत जोगी कांग्रेस के अनुसूचित जन जाति प्रकोष्ठ के राष्ट्रीय मुखिया थे और उन्हें आदिवासी मानकर ही प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री की जिम्मेदारी दी गई थी पर बाद में उनको लेकर असली नकली आदिवासी होने का आरोप-प्रत्यारोप लगता रहा.. छग सरकार की विभिन्न गठित कमेटियों से लेकर न्यायालय तक मामला गया हाईकोर्ट, सुप्रीमकोर्ट तक मामला गया… अजीत जोगी के निधन के बाद अब उपचुनाव में उनके पुत्र अमित जोगी के प्रत्याशी बनने की चर्चा थी पर भूपेश सरकार के कार्यकाल में अमित जोगी को उपचुनाव लडऩे से रोका गया तो उनकी पत्नी ऋचा जोगी(साधू )को भी प्रत्याशी बनाने की चर्चा शुरू हुई दरअसल भूपेश के राज में मुंगेली से अनुसूचित जन जाति का प्रमाण पत्र लेने का मामला चर्चा में है। दरअसल ऋचा जोगी का अनुसूचित जनजाति का प्रमाण पत्र 17 जुलाई 2020 को जरहागांव के तहसीलदार द्वारा जारी किया गया है। तहसीलदार चित्रकांत चार्ली

ठाकुर ने ऋचा रूपाली साधू (जोगी) पिता प्रवीण राज साधू निवासी पेण्ड्रीडीह तहसील जरहागांव जिला मुंगेली के नाम से अनुसूचित जनजाति का प्रमाण पत्र जारी किया है। बहरहाल इस मामले की शिकायत पर कलेक्टर मुंगेली ने जांच शुरू कर दी है, रेणु जोगी अपनी बहु ऋचा जोगी के साथ राज्यपाल अनुसूईया उइके से भी मिलकर अपना पक्ष रख चुकी है। मामला हाई प्रोफाईल है, जाति प्रमाण पत्र यदि कलेक्टर द्वारा निरस्त किया जाता है तो न्यायालय तक यह मामला जाएगा यह तय है। वैसे मेरी ऋचा के पिता साधू (रेंजर) से भी मुलाकात पहले हो चुकी है, वह आदिवासी गोंड समाज से संबंधित है इस बारे में कभी बातचीत नहीं हुई, वैसे 1950 में ऋचा साधू जोगी के परिवार की पेण्ड्रीडीह में बी साहू के
नाम से जमीन खरीदी थी, कुल मिलाकर अब मरवाही विधानसभा उपचुनाव को लेकर तरह-तरह की चर्चा है। कांग्रेस अमित के बाद ऋचा को भी नकली आदिवासी ठहरा रही है तो भाजपा का रूख जोगी परिवार की तरफ नकारात्मक नहीं है, भाजपा के एक बड़े नेता ने कहा है कि किसी को चुनाव लड़ने से रोकना उचित नहीं है…?

पवन की चार्जशीट कैट ने खारिज की…

पुलिस गृह निर्माण निगम के सीएमडी, वरिष्ठ पुलिस अधिकारी पवन देव के खिलाफ सेण्ट्रल एडमिनिस्टे्टिव्ह ट्रिव्यूनल ‘कैट’ राज्यशासन की ओर से लगाये गये आरोप पत्र को खारिज कर दिया है। यह आरोप पत्र शासन ने एक महिला आरक्षक द्वारा लगाये गये आरोपों के संबंध में पवन देव को दिया था। इसको लेकर कैट ने तल्ख टिप्पणी की जब आंतरिक जांच समिति की रिपोर्ट आ चुकी है फिर नये सिरे से आरोपपत्र देकर जांच की जरूरत क्यों पड़ रही है कैट ने इसे हाईकोर्ट के पूर्व में दिये गये निर्देश की अवमानना भी बताया है। ज्ञात रहे कि जब पवन देव बिलासपुर में आईजी थे तब थाने में पदस्थ एक महिला आरक्षक ने उन पर उत्पीडऩ का आरोप 30 जून 16 को लगाया था। तब शासन ने एक आंतरिक जांच समिति बनाई थी, उस समिति ने अपनी रिपोर्ट भी दे दी थी उसके बाद शासन ने आरोप पत्र पवन देव को थमा दिया था। ज्ञात रहे कि एडीशनल डीजी के पद पर पदस्थ पवन देव अविभाजित म.प्र. में गुना जिले में पुलिस अधीक्षक भी रह चुके हैं। जब दिग्विजय सिंह म.प्र. के मुख्यमंत्री हुआ करते थे।

और अब बस….

0 क्वींस क्लब पर बड़ी कार्यवाही नहीं करने के पीछे कहीं राज्य सरकार के अघोषित सलाहकार.. ? एक पूर्व अधिकारी का दबाव तो नहीं है।
0 15 लाख के ड्रग्स के साथ राजधानी में बड़े रैकेट का खुलासा करने निश्चित ही वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक अजय यादव और उनकी टीम को बधाई की पात्र है l
0 ट्रांसपोर्ट के एडीशनल कमिश्नर टी.आर. पैकरा के आईजी पदोन्नत होने पर पड़ोसी जिले के एक पुलिस कप्तान की तैनाती लगभग तय मानी जा रही है।
0 खुद को आदिवासी साबित करने हाईपावर कमेटी के सामने पेश नहीं होने वाले एक प्रशासनिक अधिकारी को भारत सरकार ने आईएएस अवार्ड कर दिया है।

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