{किश्त 127}
छत्तीसगढ़ के सारंगढ़ स्टेट में भी सीपी एंड बरार राज्य के समय हाईकोर्ट स्थापित था।1914 से 1946 के बीच नागपुर के अलावा इस भू-भाग का यह इकलौता हाईकोर्ट था (जबलपुर में 1956 में स्थापित हुआ) 1932 में सुनायी गयी मृत्यु दंड की सज़ा के विरुद्ध अपील बिना सुने वापस करते हुए गवर्नर जनरल ने जो कारण लिखा वह महत्व पूर्ण था। राजपरिवार के दामाद डॉ परिवेश मिश्र ने सारंगढ़ कोर्ट के एक फांसी के मामले की जानकारी दी है।उनके अनुसार सारंगढ़ में न्यायिक व्यवस्था की जड़े मज़बूत थीं।1914 में राजा जवाहिर सिंह को मृत्युदंड देने का अधिकार प्राप्त होने के बाद अगस्त 1946 तक स्वतंत्र हाईकोर्ट स्थापित रहा। 1956 में जबलपुर में हाईकोर्ट स्थापित होने से पहले तक नागपुर से इतर केवल सारंगढ़ ही एक स्थान था जहां हाईकोर्ट था, हालांकि इस कोर्ट से मृत्यु दंड केवल एक बार दिया गया। मामला था 1932 का जिसमें धनेश्वर नामक अभियुक्त को फांसी की सज़ा दी गयी थी। अंग्रेज़ी में कहावत है “जस्टिस डिलेड इज़ जस्टिस डिना ईड”। देर करना न्याय से वंचित करना जैसा होता है। कम से कम सारंगढ़ पर यह आरोप नहीं लगाया जा सकता है । वर्ष 1932 मार्च.. सारंगढ़ राज्य के सरिया परगने के देवान पाली गांव में हत्या का प्रकरण सामने आया, सरिया थाना के इंस्पे क्टर गुरूप्रसाद मिश्रा और बरमकेला के सब-इंस्पेक्टर केवल सिंह ने जांच की। गवाहों के बयान लेकर साक्ष्य इकट्ठा कर मामला मजिस्ट्रेट क्लास वन मो. अहमदुल्ला खान की अदा लत में पेश किया गया। अभियुक्त धनेश्वर की ओर से रायगढ़ के प्रसिद्ध वकील गौरीशंकर गुरू हाज़िर हुए। सुनवाई पूरी हुई। 31 मई को फैसलाआ गया। चूंकि सज़ा मृत्युदंड थी इसलिए केस सेशनजज श्री रामदास नायक कीकोर्ट में भेज दिया गया। 27 जून को यहां भी फैसले में सज़ा कायम रही। राजा जवाहिर सिंह के सामने मृत्युदंड के विरुद्ध अपील हुई जिसे गुण-दोष के आधार पर खारिज कर दिया। धनेश्वर की ओर से अंग्रेज़ सरकार के सामने अपील की गयी। 22 अक्टूबर को नागपुर में सेन्ट्रल प्राॅविन्सेज़ राज्य के गवर्नर ए.ई. नेल्सन ने यह अपील गवर्नर जनरल के पास दिल्ली भेज दी। एक दिसम्बर : गवर्नर जनरल ने टेलीग्राम भेजकर इसफैसले में हस्तक्षेप करने से इन्कार कर दिया बल्कि इन्कार करने का कारण भी बताया जो रोचक है। फ़ैसले पर अपील खारिज करने वाले राजा जवाहिर सिंह का “प्रोटोकॉल” दर्ज़ा उनके (गवर्नर जनरल के) राजा (ब्रिटेन के राजा जाॅर्ज छठवें) के समकक्ष है अतः गवर्नर जनरल के लिए हस्त क्षेप मुमकिन नहीं है। टेली ग्राम की एक प्रति धनेश्वर के पास भी गयी थी। वर्ष समाप्त होने से पहले फांसी हो गयी। न न्याय में देरी की गयी, न किसी को उससे वंचित किया गया…..!
सारंगढ़ में गिरि विलास पैलेस परिसर के भीतर एक सफ़ेद भवन भी स्थापित है, 1946 तक यह उच्च न्याया लय था। सीपी एंड बरार राज्य की राजधानी नागपुर होती थी, छत्तीसगढ़ भी उसी राज्य के अधीन था। नागपुर से करीब500किलो मीटर दूर ब्रिटिश शासन के समय 1946 तक सारंगढ़ में भी एक उच्च न्यायालय स्थापित किया गया था,यहां पारित, पुष्टि और फांसी की सजा दी गई थी। तब राज्य के दीवानों को ब्रिटिश सरकार द्वारा जिला एवं सत्र न्यायाधीश की शक्ति प्रदान की गई थी।तब के शासक राजा जवाहिर सिँह (1886से 1946) को भी अपीलीय प्राधिकारी केरूप में एक ब्रिटिश उच्च न्याया लय के न्यायाधीश के बरा बर न्यायिक शक्तियां थीँ, वहाँ के इतिहास के मुता बिक तब सारंगढ़ में विभिन्न मामलों में व्ही व्ही गिरि जैसे बड़े वकील(भारत की आजादी के कुछ वर्षो बाद राष्ट्रपति भी बने) आते थे।उन्होंने 1920 के दशक के अंत में 4 साल लम्बी श्रम हड़ताल को समाप्त करने के लिये बंगाल-नागपुर रेल्वे के साथ समझौता करने के लिये इस मंच का उपयोग किया था। इसी के साथ सर हरिसिंह गौड़ (बाद में सागर विश्वविद्यालय के संस्थापक कुलपति)बैरिस्टर छेदीलाल तथा पंडित रविशंकर शुक्ल आदि के भी न्यायालय में आने तथा मुकदमा लड़ने की भी जानकारी मिली है।1946 तक़ संचालन की जानकारी है।1956 में नया मप्र बना और छ्ग नयेराज्य के अधीन हो गया,जबलपुर में हाईकोर्ट स्थापित किया गया, जबलपुर में मध्य प्रदेश हाईकोर्ट की शुरुआत 1 नवंबर 1956 को हुई थी। पूर्व में वर्तमान मप्र, छ्ग आदि को सेंट्रल प्रोविंस के नाम से जाना जाता था इसको न्यायिक आयोग क्षेत्र की ओर से प्रशासित किया जाता था, 1921 में राज्यपाल प्रांत में परिवर्तित कर दिया गया।इससे उच्च न्यायालय का दर्जा प्राप्त हुआ।इसके पश्चात सम्राट जॉर्ज फिफ्थ के ओर से इस उच्च न्यायालय को 2 जनवरी 1936 के भारत सरकार अधिनियम की ओर से लेटर्स पेटेंट के माध्यम से सेंट्रल प्रोविंस और बरार प्रांत नागपुर उच्च न्यायालय की भी स्थापना की गई थी।जिसे बाद में एमपी हाईकोर्ट के रूप में परिवर्तित कर दिया गया।