पंकज शर्मा ( वरिष्ठ पत्रकार ) आज की राजनीति में राहुल अगर असफल हैं तो असफल सही। मगर जिस दृढ़ता से वे सेकुलर, समानतावादी, बहुलतावादी और भयमुक्त राज्यव्यवस्था की नींव मजबूत करने का काम कर रहे हैं, क्या कोई और कर रहा है? घनघोर मतलबपरती, लूटपाट, लंपटता और भयादोहन के इस दौर में राहुल होना कोई इतना आसान भी नहीं है। विचारधाराओं के स्खलन के इस युग में जिस वैचारिक दृढ़ता की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है, वह राहुल में है।
2024 के नरेंद्र भाई मोदी विरोधी परिदृश्य का धुंधलका छंटता जा रहा है। असली-नकली चेहरे सामने आने लगे हैं। विपक्षी एकजुटता का यही हाल रहा तो आराम से बने या खींचखांच कर, केंद्र में अगली सरकार नरेंद्र भाई की ही बनती नज़र आ रही है। अगर कोई सोचता है कि ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल और मायावती के भरोसे ढाई बरस बाद नरेंद्र भाई से ताल-ठुकाई कर लेगा तो उसकी सियासी समझ को मैं 24 तोपों की सलामी आज ही दे देना चाहता हूं।
केजरीवाल और मायावती तो असद्दुदीन ओवैसी के सज़िल्द संस्करण पहले ही बने बैठे थे। अब एक छद्म और मतलबपरस्त आंकड़ेबाज़ के चंगुल में फंस कर ममता भी उसी राह पर चल पड़ी हैं। सो, ये सब मिल कर नरेंद्र भाई के बेतरह ऊबड़-खाबड़ हो चुके रास्ते को समतल बनाने में जाने-अनजाने मशगूल हैं। मत-कुरुक्षेत्र के ज़्यादातर रथ जब नरेंद्र भाई के खि़लाफ़ कूच की तैयारियों को अंतिम छुअन दे रहे हैं, तब ममता की निर्ममता विपक्षी एकजुटता में अंतिम कील साबित हो रही है।
ममता पर प्रधानमंत्री के सिंहासन का अतिशय-ख़्वाब इतना हावी हो गया है कि वे कुछ और देख-समझ ही नहीं पा रही हैं। अपनी अखिल भारतीय उपस्थिति को लेकर उन्हें ऐसी ख़ुशफ़हमी हो गई है कि रायसीना की पहाड़ियां उन्हें बस चंद क़दम दूर लग रही हैं। शरद पवार से मिलने वे इसलिए गईं कि प्रधानमंत्री-स्वप्न की एक झलकी उनकी आंखों में भी बसा आएं। मगर पवार, पवार हैं। वे ममता नहीं हैं कि आंकड़ेबाज़ों की चकल्लस के लपेटे में आ जाएं। कई महीने पहले जब भाड़े पर उपलब्ध आंकड़ेबाज़ ने उनके पास जा कर सपनों की सौदागरी करनी चाही थी तो उसे भी पवार ने खाली हाथ लौटा दिया था। अब जब ममता ने उनकी बिसात पर गुलाबी रंग बिखेरे होंगे, तब भी पवार समझ गए होंगे कि वे तो बहाना हैं। उन्हें आगे कर ममता दरअसल तो ख़ुद के चक्कर में हैं।
विपक्षी एकता की प्रक्रिया से कांग्रेस को अलग-थलग करने की बचकानी कोशिशों को अगर पवार का समर्थन होता तो वे बार-बार यह नहीं दोहराते कि कांग्रेस के बिना विपक्षी एकजुटता बेमानी है। पवार जैसे तमाम परिपक्व विपक्षी राजनीतिक जानते हैं कि 543 लोकसभा क्षेत्रों में से 204 ऐसे हैं, जिनमें कांग्रेस के अलावा विपक्ष के किसी और राजनीतिक दल की उपस्थिति नहीं के बराबर है। ऐसे में कांग्रेस को किनारे कर क्षेत्रीय दलों का कोई ऐसा संघीय ढांचा आकार ले ही नहीं सकता है, जो नरेंद्र भाई की भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी दलों के सामने सिर भी उठा सके।
जुम्मा-जुम्मा सात रोज़ पहले अपना दस्तरख़्वान ले कर निकले लोग जब यह कहें कि चूंकि कांग्रेस नरेंद्र भाई को टक्कर नहीं दे पा रही है, इसलिए अब उन्हें विपक्षी एकता के लिए देश भर में घूमना पड़ रहा है तो हंसते-हंसते आप के पेट में बल नहीं पड़ रहे? 2014 से पूरे मुल्क़ को अपनी जूतियों के नीचे कुचल रहे बादशाह सलामत को परत-दर-परत घुटनों पर टिका देने का काम राहुल गांधी ने नहीं तो क्या अभिषेक बनर्जी ने किया है? यह काम सोनिया गांधी ने नहीं तो क्या मायावती ने किया है? यह प्रियंका गांधी ने नहीं तो क्या अरविंद केजरीवाल ने किया है? कृषि क़ानूनों की वापसी को ले कर चले आंदोलन की जयमाला क्या हम किसानों के बजाय के असद्दुदीन ओवैसी के गले में डाल दें?
जो पूछ रहे हैं कि कौन-सा यूपीए, उन्हें बताइए कि वह यूपीए, जिसमें आज भी 15 राजनीतिक दल हैं। ममता की तृणमूल कांग्रेस अगर यूपीए का हिस्सा नहीं है तो क्या यूपीए है ही नहीं? इतनी रतौंधी तो ठीक नहीं। डीएमके कहां है, ममता को क्यों नहीं दिखता? एनसीपी, नेशनल कांफ्रेंस, जेएमएम और एक दर्जन दूसरे राजनीतिक दल यूपीए का नहीं तो क्या ममता के प्रस्तावित संघीय मोर्चे का हिस्सा हैं? जिन्हें अनदेखी करनी है, करें, लेकिन तथ्य यह है कि यूपीए के लोकसभा में इस वक़्त 91 सांसद हैं, राज्यसभा में उसके 55 सदस्य हैं और विधानसभाओं में यूपीए के 1111 विधायक हैं।
ममता को मालूम होना चाहिए कि पश्चिम बंगाल के बाहर वे जिस गुब्बारे पर बैठी हैं, वह राजनीति के आसमान में उन्हें बहुत दूर नहीं ले जा सकता है। इसलिए अपनी देशव्यापी उपस्थिति की उम्मीद में फूल कर उन्हें इतना कुप्पा नहीं होना चाहिए कि कांग्रेस और उसके शिखर नेतृत्व के बारे में आंय-बांय-शांय बोलने लगें। जिस बंगाल की वे अपने को एकछत्र रानी समझने लगी हैं, वहां भी वह दिन तो कभी आने वाला नहीं है कि ममता राज्य की सभी 294 विधानसभा सीटें, 42 लोकसभा सीटें और राज्यसभा की सभी 16 सीटें अपने पल्लू में बांध कर जिधर चाहें, चल पड़ें।
कोई बेचारा अधकचरा आंकडेबाज़ क्या जाने कि अगर राजीव गांधी का एकतरफ़ा सबल सहारा न होता तो ममता दीदी सियासी बियाबान में कब की ग़ुम हो गई होतीं। उनके जुझारूपन को राजीव का संरक्षण न मिला होता तो वे भी बंगाल की सूरमा भोपाली ही बन कर रह जातीं। राजीव नहीं रहे तो सोनिया गांधी ने कांग्रेस की सरकार में ममता के लिए जगह बनाई। और, ममता ने इसका चुकारा कैसे किया? वे कांग्रेस छोड़ कर चली गईं। फिर भारतीय जनता पार्टी की सरकार में मंत्री बन गईं। कोयला, खनिज और रेलवे जैसे मंत्रालयों को अपनी झोली में डाल लिया। 2004 में कांग्रेस की फिर सरकार बनी तो सोनिया के पास जा कर अपने पुराने संबंधों की दुहाई दी। आमतौर पर सब को माफ़ कर देने के भावों से भरी सोनिया ने ममता को मनमोहन सिंह की सरकार में फिर रेल मंत्री की कुर्सी पर बैठने का मौक़ा दे दिया। बाद में कांग्रेस की मैदानी मदद से वे बंगाल की मुख्यमंत्री बन गईं। लेकिन अब उन पर प्रधानमंत्री बनने की सनक सवार है। सो, कहां की कांग्रेस? कौन सोनिया? कैसा यूपीए? कैसी विचारधारा?
आज ममता को राहुल गांधी में ख़ामियां नज़र आ रही हैं। हां हैं, राहुल में कई खा़मियां हैं। सबसे बड़ी ख़ामी तो यह है कि वे सहज-विश्वासी हैं। वे कलियुगी राजनीति के सहभागी नहीं हैं। वे राजनीति के साम-दाम पहलू के बजाय उसके दार्शनिक आयाम में खोए रहते हैं। वे राजनीतिक संगठन को महज़ चुनाव जीतने की मशीन नहीं बनाना चाहते। वे भारतीय समाज के बुनियादी और चिरंतन उसूलों को मजबूत करने का राजधर्म निभाना चाहते हैं। उठापटक, जोड़तोड़ और ख़रीद-फ़रोख़्त के ज़रिए सरकारें बनाने-गिराने में उनका विश्वास नहीं है।
सो, आज की राजनीति में राहुल अगर असफल हैं तो असफल सही। मगर जिस दृढ़ता से वे सेकुलर, समानतावादी, बहुलतावादी और भयमुक्त राज्यव्यवस्था की नींव मजबूत करने का काम कर रहे हैं, क्या कोई और कर रहा है? घनघोर मतलबपरती, लूटपाट, लंपटता और भयादोहन के इस दौर में राहुल होना कोई इतना आसान भी नहीं है। विचारधाराओं के स्खलन के इस युग में जिस वैचारिक दृढ़ता की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है, वह राहुल में है। क्या इतना काफी नहीं है? जिस दिन वे अपनी राजनीति के अध्यात्मिक सरोवर में व्यावहारिकता का थोड़ा-सा सोमरस छिड़क लेंगे, आप देखना, नरेंद्र भाई की सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाएगी। मन तो नहीं है, लेकिन मैं भी राहुल से यही कहना चाहता हूं कि अब सियासत की अपनी व्यास-पीठ से एक-दो पायदान नीचे उतर आने से ही ‘सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय’ का मंत्र सिद्ध हो पाएगा। क़ामयाबी के इस तावीज़ को लपके बिना अब कुछ नहीं होगा। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)