{किश्त 6}
राजनीति की किताब का यह दिलचस्प किस्सा कोई पांच दशक पुराना है।छ्ग विधानसभा के इस बार के चुनावों में प्रत्याशियों द्वारा चुना खर्च की सीमा 40 लाख चुनाव आयोग ने तय की है।एक समय वह भी था जब चुनाव में महज 250 रुपये ज्यादा खर्च होना साबित हो गया तो कांग्रेस के कद्दावर नेता डीपी मिश्र को मुख्यमंत्री पद गंवाना पड़ा था।इंदिरा गांधी के सलाहकार और मप्र के सीएम रहे द्वारका प्रसाद मिश्र गिनती कांग्रेस के कद्दावर नेताओं में होती थी ।डीपी मिश्र यानीद्वारका प्रसाद मिश्र मध्य प्रदेश की राजनीति का बड़ा नाम थे। वह मध्य प्रदेश के सीएम रहे लेकिन उन्हें एक ऐसे राजनेता के रूप में भी याद किया जाता है,जिन्होंने महज 249 रुपए और 72 पैसे की वजह से सीएम पद गंवा दिया था।दरअसल 25 मार्च 1969 को मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेशचंद्र सिंह ने पद से इस्तीफा दे दिया था। इसके बाद राजनीति के गलियारों में ये खबर फैल गई थी कि द्वारका प्रसाद मिश्र फिर से प्रदेश के सीएम बनने वाले हैं। क्योंकि कांग्रेस का पूरा कंट्रोल उस समय द्वारका प्रसाद मिश्र के हाथ में ही था।नरेशचंद्र सिंह मध्य प्रदेश के पहले और इकलौते आदिवासी मुख्यमंत्री थे लेकिन वह सीएम पद पर केवल 13 दिनों तक ही रहे। 12 मार्च 1969 को तत्कालीन सीएम गोविंद नारायण सिंह ने इस्तीफा दे दिया था, इसके बाद 13 मार्च को नरेशचंद्र सिंह मुख्यमंत्री बने थे लेकिन 13 दिन बाद 25 मार्च को उन्हें भी पद छोड़ना पड़ा।इसी दौरान कुछ ऐसा हुआ,जिससे मध्य प्रदेश की राजनीति का पूरा समीकरण ही बदल गया।डी पी से कसडोल (छत्तीसगढ़)उप चुनाव में पराजित कमल नारायण शर्मा की याचिका पर फैसला आया और ये सिद्ध हो गया कि डीपी मिश्रा द्वारा कसडोल के उपचुनाव में अनियमितताएं बरती गईं, जिसका नतीजा ये हुआ कि इस चुनाव को अवैध घोषित कर दिया गया।कसडोल के उपचुनाव में डीपी मिश्र के चुनाव एजेंट श्यामचरण शुक्ल थे,लेकिन जब डीपी मिश्र चुनाव जीत गए तो उनकी टीम से चुनाव पर किये जाने वाले खर्चों के बिल कहीं खो गये।बाद में कमलनारायण शर्मा ने इस जीत के खिलाफ याचिका दायर की। असल में शर्मा को कहीं से 6300 रुपए का एक बिल मिल गया, जिस पर डीपी मिश्र के चुनाव एजेंट श्यामचरण शुक्ल के हस्ताक्षर थे।यहीं से इस चुनाव का पूरा गणित ही बदल गया। हालांकि कहा ये भी जाता है कि एक बड़े कॉंग्रेसी ने डीपी मिश्र को धोखा दिया था और अहम दस्तावेज कमलनारायण शर्मा को उपलब्ध करवाए थे।इसके बाद मई 1963 में कसडोल उपचुनाव को निरस्त कर दिया गया,क्योंकि ये पाया गया कि डीपी मिश्र ने चुनाव के लिए निर्धारित रकम से 249 रुपए और 72 पैसे ज्यादा खर्च किए थे। जबलपुर हाई कोर्ट ने इस मामले के सामने आने के बाद डीपी मिश्र को 6 साल के लिए चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य साबित कर दिया। कोर्ट के इस फैसले ने डीपी मिश्र के पूरे राजनीतिक जीवन को बदलकर रख दिया।हालांकि बाद में मिश्र इंदिरा गांधी के सलाहकार रहे और बाद में राजीव गांधी के समय भी काफी सक्रिय दिखे।वैसे आरोपों से बचने के लिए डीपी मिश्र के बारे में एक बात और बहुत चर्चा में रही है कि वह जब मध्य प्रदेश के सीएम बने तो उनके बड़े बेटे ने भोपाल में अपनी चलती हुई दवाई की दुकान को बंद कर दिया।इस दुकान का नाम जानकी फार्मेसी था और ये भोपाल में हमीदिया अस्पताल के पास थी। इसके पीछे की वजह ये सुनने में आई कि कोई मिश्र पर ये आरोप ना लगा सके कि जानकी फार्मेसी में हमीदिया अस्पताल की जरूरतें पूरी की जा रही हैं।पिता के लिए बेटे की ये कुर्बानी उस वक्त में काफी चर्चा का विषय बनी थी क्योंकि वो दुकान काफी चलती थी और डीपी मिश्र के बेटे ने अपने पिता की प्रतिष्ठा के लिए उस दुकान को बंद कर दिया था।
13 दिन में दो सीएम ने दिया था इस्तीफा
12 मार्च 1969 को मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद नारायण सिंह ने इस्तीफा दे दिया, इसके बाद 13 मार्च को नरेशचंद्र सिंह मुख्यमंत्री बने।लेकिन उन्हें भी 13 दिन बाद यानी 25 मार्च को पद छोड़ना पड़ा।नरेशचंद्र सिंह मध्य प्रदेश के पहले और इकलौते आदिवासी मुख्यमंत्री थे।वे केवल 13 दिन सीएम रहे और14वें दिन उन्होंने पद से इस्तीफा दे दिया और फिर एक तरीके से राजनीति से संन्यास ही ले लिया….