नक्सलियों के क्रूर चेहरों से उतरता नकाब

निर्दोष ग्रामीणों के हत्यारे हैं नक्सली

नक्सलियों के डर से बस्तर के हजारों जनजातीय बंधु अपने गांव छोड़कर शहरों में रहने को मजबूर

केवल हत्या, लूटपाट करना और आतंक फैलाना जानते हैं नक्सली

 

बस्तर से लौटकर प्रियंका कौशल                            

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कुछ महीनों पहले एक मूवी आई थी, नाम था ‘बस्तर’। जिस किसी ने भी वह फिल्म देखी होगी तो उसका पहला ही दृश्य याद होगा, जिसमें नक्सली जन-अदालत के नाम पर भीड़ इक्टठी कर एक ग्रामीण की नृशंस हत्या करते हैं। कुल्हाडी से जिस तरह एक आदमी को काटने का दृश्य है, वह दर्शक को अंदर तक हिला देता है। उस सीन को देखकर कई दर्शकों का कलेजा मुंह को आ जाता है। जन अदालत यानि नक्सलियों की अपनी भीड़, जिसमें गांववालों को जबरिया शामिल किया जाता है और मौत का तांडव किया जाता है। कुछ शहरी लोगों की त्वरित प्रतिक्रिया यह थी कि ऐसा भी होता होगा क्या? क्या इतने क्रूर कृत्य सच में होते होंगे? प्रश्न पूछने वालों में छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के भी लोग थे। उनकी बातें सुनकर मुझे कोई खास आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि मुझे पता था कि लोग केवल तीन सौ या चार सौ किलोमीटर दूर घट रही घटनाओं से पूरी तरह अनजान हैं। जब रायपुर के लोगों की यह स्थिति है, दूर दिल्ली में बैठकर बस्तर और नक्सलवाद पर चर्चा करने वालों की वास्तविकता भी हम बखूबी समझ सकते हैं।

अभी इसी सप्ताह बस्तर के कुछ नक्सल प्रभावित/पीड़ित लोग दिल्ली पहुंचे और देश की राष्ट्रपति श्रीमति द्रोपदी मूर्मू और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह से मिले। उन्होंने अपनी दर्दभरी जीवनयात्रा देश के दो सर्वोच्च व्यक्तियों के साथ साझा की। साथ ही जेएनयू पहुंचकर भी लोगों को नक्सलियों की सच्चाई से अवगत कराया। इसे देखकर मुझे भी नारायणपुर के कस्तूरी मेटा गांव के लक्ष्मण कश्यप, अबूझमाड़ स्थित मुरनार गांव की रमूला कवासी, कुतुल निवासी फगनी वरदा, कांकेर के अंतागढ़ के आमागांव की कुसुम बरबस ही याद आ गये, जिनसे अभी मैं दो माह पहले ही बस्तर में मिली थी।

दो महीने पहले मैं एक हिंदी न्यूज चैनल की स्टोरी कवर करने बस्तर के कांकेर और नारायणपुर जिले के दौरे पर थी। उस यात्रा में मैं कम से कम 100 ऐसे जनजातीय बंधुओं से मिली, जो नक्सली हिंसा में सबकुछ गवां कर नारायणपुर या कांकेर जिला मुख्यालय में रहने को मजबूर हैं। ये सब बस्तर के वे निर्दोष नागरिक हैं, जो अपने-अपने गांव में शांतिप्रिय ढंग से गुजर-बसर कर रहे थे। लेकिन नक्सलियों ने न केवल इनके निर्दोष परिजनों की क्रूर हत्या की, बल्कि इनके घर-मकान, खेत-खलिहान, गाय-बकरी, सबकुछ छीनकर इन्हें इनके गांव से पलायन करने को मजबूर किया। हालात ये हैं कि इनमें से कई वर्षों से अपने गांव नहीं जा पाए हैं। मेरी तो अल्पकालीन यात्रा में मुझे केवल इतने ही लोगों से मिलने का समय मिला, लेकिन इन निर्दोष जनजातीय लोगों की संख्या हजारों में है।

नारायणपुर के कस्तूरी मेटा गांव के लक्ष्मण कश्यप की कहानी सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। वर्ष 2001 में उनके 14 वर्षीय भाई को नक्सलियों ने जिंदा जलाकर मार दिया था। मारने के पहले उसके हाथों को जगह-जगह से काटा गया। जिस बच्चे को जिंदा जलाया, उसका कसूर केवल इतना था कि वह नारायणपुर में रहकर पढ़ाई कर रहा था। आठवीं कक्षा का छात्र जब छट्टियों में अपने घर कस्तूरी मेटा गांव पहुंचा तो नक्सलियों ने मुखबिर होने का आरोप लगाकर उसे पूरे गांव के सामने जिंदा जला दिया। माता-पिता, भाई और अन्य परिजनों को नक्सलियों ने बांधकर पटक दिया, ताकि वो अपने बच्चे को बचाने में कोई मदद न कर पाएं। लक्ष्मण कश्यप जब यह घटना बताते हैं, तो उनकी आंखे भींग जाती हैं। इस घटना के बाद उनके घर को भी आग लगा दी गई। पूरे परिवार को गांव छोडकर जाने को मजबूर किया गया। पिछले 23 वर्षों से लक्ष्मण कश्यप नारायणपुर में रहते हैं, पलटकर कभी अपने घर नहीं जा पाए। माता-पिता भी घर लौटनी की आस लिए दुनिया से ही विदा हो गए।

अबूझमाड़ के मुरनार गांव की निवासी रमूला कवासी तो कुछ कहने के पहले ही रोने लगती हैं। बड़ी मुश्किल से वो अपनी बात कह पाती हैं। उनका नक्सलियों से केवल यही प्रश्न है, कि उनके परिवार ने क्या बिगाड़ा था? नक्सलियों ने वर्ष 2009 में रमूला के पति की उनके सामने ही हत्या कर दी थी। उनके छोटे-छोटे बच्चे भी वहीं मौजूद थे। रमूला बताती हैं कि नक्सलियों ने मेरे पति के हाथ पीछे की तरह बांध दिए थे। वे लगातार उनकी हड्डियों को खोंद रहे थे। बहुत तकलीफ देने के बाद उनके पति को मार डाला गया। उनकी हत्या क्यों की गई, इसका उत्तर उन्हें कभी नहीं मिला। लेकिन यह जरूर समझ में आ गया कि नक्सली किसी का भला करने नहीं आए हैं। वे आतातायी हैं, केवल हत्या, लूटपाट और आतंक फैलाना जानते हैं। रमूला के पति की हत्या करने के बाद नक्सलियों ने उनसे उनका घर छीन लिया। खेतीबाड़ी और संपत्ति भी छीन ली। रमूला को कहा गया कि इधर दोबारा नहीं आना, नहीं तो मारी जाओगी। नारायणपुर में बांस शिल्प का कामकर उसने अपने छह बच्चों को पाला है। उसका दुख उसके चेहरे पर साफ झलकता है।

अबूझमाड़ के ओरछा में रहने वाली फगनी वरदा की शादी कुतुल गांव में हुई है। फगनी अपने मायके ओरछा आई हुई थी क्योंकि उनका 15 वर्ष का भाई, जो फुटबाल चैम्पियन था, वह गांव आया हुआ था। रायपुर तक फुटबॉल टूर्नामेंट में भाग ले चुका उनका भाई गांव वालों के लिए गर्व का विषय था। लेकिन नक्सलियों को ये रास नहीं आया कि कोई किशोर गांव के अन्य बच्चों के लिए सकारात्मक प्रेरणा बनकर उभरे। एक 15 वर्षीय किशोर उनका अपने अस्तित्व के लिए बड़ा खतरा नजर आने लगा। घर का दरवाजा तोड़कर नक्सली उनके घर में घुसे और फगनी वरदा के भाई को मार डाला।

कांकेर के अंतागढ़ ब्लॉक के आमागांव की रहने वाली कुसुम की बातें को अंर्तमन को झंझोड़ देती हैं। उनके पति जीवनयापन के लिए गाड़ी चलाते थे। घर के अन्य सदस्य गांव में ही खेती-बाडी करते थे। एक दिन गांव में रामायण का पाठ चल रहा था। नक्सलियों ने गांव के सभी घरों को घेरा और रामायण पाठ को बंद करवाया। कुसुम के पति की आंख पर पट्टी बांधकर गांव के बाहर ले गए। उसके बाद ससुर को घसीटते हुए ले गए। कुसुम बताती हैं कि उनके ससुर नक्सलियों के हाथ पैर जोड़ते रह गए कि उनके जवान बेटे को मत मारो। उसे क्यों मार रहे हो, उसके छोटे-छोटे बच्चे हैं, पत्नी है। उनका क्या होगा? लेकिन नक्सलियों का कलेजा नहीं पसीजा। बूढे पिता के सामने ही जवान बेटे को तडपा तडपा कर मारा गया। पहले उसे कुछ जहरीला पदार्थ खिलाया गया, फिर निर्दयता से मार दिया गया। बूढे पिता को अधमरा करके छोड़ गए। कुसुम कहती हैं कि नक्सलियों की आत्मा मर गई है। वे इंसानों को जानवरों से भी बदतर तरीके से मार रहे हैं। कुसुम यह भी कहती हैं कि यदि उनके पति किसी सड़क दुर्घटना में मर जाते तो उन्हें शायद इतना दुख नहीं होता, लेकिन नक्सलियों ने उन्हें जिस तरह दर्दनाक मौत दी, उसे याद कर वे आज भी सिहर उठती हैं। उनके पति को क्यों मारा गया, यह प्रश्न आज भी अनुत्तरित है।( लेखक भारत एक्सप्रेस  नेशनल चैनल की छत्तीसगढ़ की संपादक हैं ) 

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