प्रत्याशी नहीं पार्टी का भाग्य तय करने वाला चुनाव

   तीसरी बार मुख्यमंत्री का इंदौर दौरा

प्रदीप जोशी
इंदौर। निगम चुनाव को लेकर छाया प्रचार का शोर आज शाम थम जाएंगा। प्रदेश में महापौर पद के जिन मुकाबलों पर सबकी नजर है उसमे इंदौर सीट भी प्रमुख है। अत्यंत हाईप्रोफाईल हो चुके इस मुकाबले में हर खास ओ आम की जुबान पर चर्चा जीत और हार की है। साथ ही चर्चा दोनों दल और प्रत्याशी की आंतरिक रणनीति पर भी हो रही है। बहरहाल परिणाम से इतर बात अब तक के प्रचार अभियान की करे तो कांग्रेस निश्चित रूप से भारी पड़ी है। हालांकि बीते एक सप्ताह में भाजपा ने भी जम तक ताकत झोकी है और पार्टी के तमाम नेता सड़क पर सक्रिय नजर आ रहे है। वाबजूद इसके भाजपा का बदला बदला सा रूख चर्चा में जरूर है। बीस साल से नगर की सत्ता पर काबिज भाजपा आज जिस संघर्ष के दौर में है यह जनचर्चा का विषय है। खुद मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान को स्थानीय नेताओं को चेतावनी देना पड़ी। सीएम की धमकी का कितना उसर भाजपा नेताओं पर हुआ इसका तो पता नहीं, अलबत्ता चुनाव प्रचार के लिए उनका तीसरी बार इंदौर आना अगल कहानी बयां कर रहा है। उधर दुसरी और शुक्ला ने कुशल रणनीति से कांग्रेस में नई जान फूंकने का काम कर दिया। इस चुनाव में भाजपा ने काफी हद तक डेमेज कंट्रोल कर लिया, बावजूद इसके उसे अब आत्ममंथन करना होगा।

हैरान है भाजपा के देवदुर्लभ कार्यकर्ता
पार्टी के बदले बदले रूख पर पार्टी के वे कार्यकर्ता हैरान है जिन्हे देवदुर्लभ होने का दर्जा प्राप्त है। कारण यह है कि कठोर अनुशासन और संगठननिष्ट होने का दांवा करने वाली भाजपा आज एक अलग मुकाम पर आ चुकी है। बीस साल से जिस शहर में पार्टी की सत्ता हो, जो शहर लगातार स्वच्छता में देश में नंबर वन हो, जिसे वाटर प्लस अवार्ड हांसिल हो, जो पहला ओडीएफ मुक्त शहर हो, जिस शहर के विकास के मॉडल को प्रदेश ही नहीं देश के नक्शे पर शान से रखा जाता रहा हो। उस शहर में भाजपा इतनी बैचने क्यों है ? यह प्रश्न कार्यकर्ताओं के मन में उठ रहा है। कारण बड़े नेता कुछ भी गिनाए पर सच्चाई जमीनी कार्यकर्ताओं की जुबान पर है जो इन नेताओं और संगठन की उपेक्षा का शिकार बन गए।

आधा समय रूठों को मनाने में गुजर गया
अतिरिक्त महाधिवक्ता के पद से इस्तीफा देकर मैदान में उतरे पुष्यमित्र भार्गव को शायद इस बात का इल्म नहीं था कि उन्हें किन मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा। इंदौर से महापौर पद की दौड़ में करीब आधा दर्जन नेता मैदान में थे। संगठन ने सभी नाम दरकिनार कर भार्गव के नाम पर मुहर लगा दी। भार्गव को लगा होगा कि नाम तय होने के बाद भाजपा एक हो जाएंगी मगर ऐसा हुआ नहीं। आधा समय तो रूठों को मनाने में गुजर गया। लंबी चौड़ी चुनाव संचालन समिति बनी फिर सारे बड़े नेता घर बैठ गए।

एक बानगी नेताओं की भूमिका पर
पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय दो दिन जनसंपर्क में साथ चले, फिर शायद उन्हें अपने पद का अहसास हो गया, लिहाजा वे जनसंपर्क से दूर हो गए। मुख्यमंत्री के दुसरे दौरे के ठीक पहले वे सक्रिय हुए मगर अपने पुत्र की विधानसभा क्षेत्र में। दुसरी बार रोड़ शो उन्होंने अपने गृह वार्ड नंदानगर में ही किया। चुनाव प्रभारी रमेश मेंदोला का सारा ध्यान क्षेत्र क्रमांक 2 में ही लगा हुआ है। चुनाव संचालक मधु वर्मा की भूमिका कार्यालय प्रभारी से ज्यादा कुछ नहीं। सह प्रभारी प्रमोद टंडन पार्टी में नए नवेले है इसलिए उनसे ज्यादा कुछ उम्मीद नहीं की जा सकती। महापौर पद के दांवेदार जीतू जिराती उपेक्षा से नाराज चलते रहे। पूर्व महापौर उमाशशि शर्मा, कृष्णमुरारी मोघे, मालिनी गौड़ सिर्फ मीडिया से विकास के दांवे पर रूबरू हुए। वह भी भाजपा प्रवक्ताओं के साथ। सांसद शंकर लालवानी भी केंद्र की उपलब्धियों से ज्यादा कुछ कहने की स्थिति में नहीं।

हर मुद्दे पर घेर रहे शुक्ला
कांग्रेस प्रत्याशी संजय शुक्ला जनसम्पर्क के मामले में काफी आगे है। जनसम्पर्क में जितना शहर संजय ने नापा है उसकी तुलना में पुष्यमित्र भार्गव काफी पीछे है। इसके अलावा संजय की टीम लगातार भाजपा पर हमलावर बनी हुई है। इसके पीछे संजय की आईटी सेल की टीम है जो हर मुद्दे पर त्वरित प्रतिक्रिया दे रही है। संजय का सबसे बड़ा प्लस प्वाइंट राजनीति का अनुभव, विधायक और जनता के बीच उनकी पहचान और समर्थकों की भीड़ है। बात कांग्रेस के बड़े नेताओं की करे तो स्थानीय सारे नेता उनके साथ है। बड़े नेताओं में कमलनाथ सिर्फ एक बार उनके लिए आए, उनके अलावा अभी तक ना तो कोई बड़ी सभा हुई और ना ही कोई राष्ट्रीय नेता इंदौर पहुंचा। मतलब यह चुनाव संजय वर्सेस भारतीय जनता पार्टी बन कर रह गया है। ऐसे में परिणाम कुछ भी हो संजय अपनी पार्टी के फ्रंट लाइन नेताओं की जमात में शामिल तो हो ही चुके है।

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