मनुष्य और पर्यावरण का संगम ही ‘‘जीवन’’ है…

– 5 जून: विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष     

 प्रवीण कक्कड़

5 जून 1992 की बात है जब ब्राजील के रियो डी जनेरियो में जैव विविधता पर पृथ्वी शिखर सम्मेलन का आयोजन हुआ। इस सम्मेलन में दुनिया भर के सभी जागरूक और जिम्मेदार देश शामिल हुए लेकिन दुनिया का सबसे शक्तिशाली देश अमेरिका इस सम्मेलन के समझौते का हिस्सा नहीं था। भारत ने इस सम्मेलन में पूरी जिम्मेदारी के साथ भाग लिया जिसके फैसलों को 29 दिसंबर 1993 को लागू किया गया। इसके 20 साल पहले वर्ष 1972 में स्टॉकहोम में मानव पर्यावरण सम्मेलन का आयोजन किया गया था। 16 सितंबर 1987 को मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल में ओजोन परत को बचाने के लिए समझौता किया गया। बाद में वैज्ञानिक सहमति के आधार पर ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिए 1992 में क्योटो प्रोटोकॉल पर बड़ी संख्या में देशों ने हस्ताक्षर किए थे। भारत में पर्यावरण संरक्षण अधिनियम भारत की संसद द्वारा 1986 में पारित किया गया था। इसे संविधान के अनुच्छेद 253 के तहत पारित किया गया था। यह 19 नवंबर 1986 को लागू हुआ था।

ऐसे अनेक मील के पत्थर हैं। जिनका जिक्र यहां करना इसलिए जरूरी है, क्योंकि पर्यावरण को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लगातार समझौते कागजों पर होते आए हैं लेकिन उसके बाद भी पर्यावरण की स्थिति बिगड़ती जा रही है। मनुष्य और पर्यावरण का संगम ही जीवन है। पर्यावरण संरक्षण को लेकर अंतराष्ट्रीय स्तर पर समझौते हो रहे हैं, वहीं सामाजिक स्तर पर कई संकल्प लिए जा रहे हैं लेकिन हम जब तक इन पर व्यवहारिक अमल नहीं करेंगे तब तक इन समझौतों और संकल्पों का अर्थ नहीं है।

1972 में जब पहली बार स्टॉकहोम में मानव पर्यावरण सम्मेलन में दुनिया के बढ़ते तापमान पर चिंता व्यक्त की गई थी तब से लेकर अब तक औसत तापमान में बेतहाशा वृद्धि हो चुकी है। ग्लोबल वॉर्मिंग हम सभी के लिए चिंता का विषय है। चिंता होना भी स्वभाविक भी है, क्योंकि जिस तरह से पिछले कुछ वर्षों में पेड़ों का क्षरण हुआ है, प्रकृति का शोषण हुआ है उससे आने वाले समय में यह ग्लोबल वॉर्मिंग के बढ़ते स्तर के रूप में एक बड़ी चुनौती बन जायेगा। हमने जिस तेजी से विकास के प्रति दौड़ लगाई उसमें हमने बहुत कुछ पीछे छोड़ दिया। इनमें प्रकृति और पर्यावरण सबसे बड़े मुद्दे थे और अब आज साफ दिखाई दे रहा है कि हमारी नदियां हों, जंगल हों वायु, मिट्टी हो यह सब कहीं न कहीं खतरे में आ गयें हैं। यह सब प्रमाणित कर रहे हैं कि आज हमारे चारों तरफ जो कुछ भी हो रहा है यह सब इन्हीं कारणों से हैं।

अंटार्कटिका की बर्फ की परत छलनी हो गई है। समुद्र का जल स्तर इतना बढ़ गया है कि मालदीप जैसे देशों का अस्तित्व खत्म होने का खतरा मंडराने लगा है। तटवर्ती शहरों के कभी भी जलमग्न होने की आशंका है। शहर कभी भी जलमग्न हो सकते हैं। तापमान बढ़ने के कारण पृथ्वी का एक बड़ा हिस्सा जल प्रलय का शिकार हो सकता है। हम सुनामी का मंजर देख चुके हैं। आज बढ़ते तापमान के बीच जल प्रलय या अग्नि प्रलय की आशंका हमें अपनी उन पौराणिक घटनाओं की याद दिलाती है जब पृथ्वी पर पर्यावरण नष्ट होने से जीवन खत्म हो गया था। आज की परिस्थितियों को देखते हुए वह घटनाक्रम सत्य प्रतीत होता है। पर्यावरण और जलवायु को लेकर समझौते तो बहुत हो चुके हैं लेकिन समझौते लागू करने की दिशा में कोई पहल नहीं होती। इसके बहुत से कारण हैं। सबसे बड़ा कारण है हमारी अपनी स्वार्थ लिप्सा। हम थोड़े से लाभ के चक्कर में दीर्घकालीन हानि को आमंत्रित करते हैं। लम्हों की खता करते हैं सदियों की सजा पाते हैं।

इतना सब होने के बाद भी पर्यावरण को लेकर जागरूकता का बेहद अभाव है। आए दिन जंगलों को साफ करने वाले लकड़ी तस्कर पकड़े जा रहे हैं। जंगल माफिया जंगल को साफ कर रहा है। जमीन माफिया खेत निगल रहा है और बिल्डिंग माफिया उन जमीनों पर बिल्डिंग बना रहा है। यह खेल सारी दुनिया में चल रहा है ताकतवर लोगों ने पर्यावरण को अपनी मुट्ठी में कैद करके रखा है। और इस भ्रम में की मैं कुछ नहीं कर रहा हूं, मैं तो निर्दोष हूं, सारी दुनिया का पर्यावरण नष्ट किए जा रहे हैं। हम जितने ताकतवर हुए हैं। हमारा कार्बन फुटप्रिंट उतना ही बढ़ गया है। यानी हमारी ताकत पृथ्वी के लिए गंदगी और प्रदूषण से भरपूर है। हम जितने साधन संपन्न हुए हैं पर्यावरण को उतना ही नुकसान पहुंचाया है। हम जितने सुविधाभोगी हुए हैं उतना ही पृथ्वी को कष्ट में डाला है।

ईश्वर ने यह पृथ्वी बनाई है सामंजस्य और सद्भाव के लिए, प्रेम के लिए। पृथ्वी किसी एक प्राणी की नहीं है बल्कि सबसे सूक्ष्म जीव से लेकर सबसे विशाल जीव तक सभी के लिए पृथ्वी एक समान है। यह सहनशील है और हमारी अनजानी भूलों को माफ करने की क्षमता रखती है लेकिन जब हम जानबूझकर भूल करते हैं तो फिर पृथ्वी भी दंड देती है। हमारी जानबूझकर की गई भूलों का दंड विधान अब चल रहा है। तूफान, सूखा, अतिवर्षा, बढ़ता तापमान यह सब पृथ्वी का दंड विधान है। यह दंड विधान और क्रूरतम न हो इसकी फिक्र हर मानव को करना है।

दुनिया के ताकतवर देश एक टेबल पर बैठकर समझौता कर सकते हैं लेकिन इन समझौतों को लागू करना हम मानवों का कर्तव्य है। क्योंकि इस पृथ्वी पर मानव ही पर्यावरण का सबसे बड़ा दुश्मन है। इस पर्यावरण दिवस यही चिंतन करने की जरूरत है कि एक इंसान के रूप में हम अपने आसपास के पर्यावरण को कैसे बचा सकते हैं। अपना खुद का कार्बन फुटप्रिंट कितना कम कर सकते हैं। और कितने अधिक पेड़ पौधे लगाकर उन्हें सहेज सकते हैं। अन्यथा पृथ्वी के दंड विधान से बचना असंभव है। पर्यावरण दिवस पर यही चिंतन सर्वोपरि है।

( लेखक एक पूर्व अधिकारी हैं )

 

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