जयवीर शेरगिल
( लेखक सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता एवं भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रवक्ता हैं )
किसी चीज़ का वादा करना,उस वादे को पूरा करने से ज्यादाआसान है। पूरे देश में किसानों के जबरदस्त विरोध को देखते हुए,उम्मीद है कि मोदी सरकार अब इस पर ध्यान देगी। 2016 में, प्रधानमंत्री ने 2022 तक किसानों की आय को दो गुना करने के लिए एकऔपचारिक लक्ष्य निर्धारित किया था। 4 वर्षों से भी कम समय में, जब कृषि समुदाय बढ़ती लागत, लागत की तुलना में कम उत्पादन और कोविड महामारी के कारण संकट के दौर से गुजर रहा है, तब मोदी सरकार ने तीन अध्यादेशों ,जिनमें से दो को रविवार को राज्यसभा में सारे संसदीय प्रोटोकॉल का उल्लंघन कर पारित कर दिए गए – ये क़ानून किसानों को कॉरपोरेट्स के हाथों में खेलने के लिए मजबूर कर देंगे |
भाजपा की अगुवाई वाली केंद्र सरकार किसानों के प्रतिअपनी ज़िम्मेदारी को पूरा करने के बजाय,भारत को “ज़मींदारी”शासन में वापस लाकर ; किसानों को कॉर्पोरेट दिग्गजों क दया पर छोड़ देना चाहतीहै। जिस कानून को ये “ऐतिहासिकसुधारों” का नाम देकर प्रचारित कर रहे,आगे चल कर यही क़ानून इस देश के अन्नदाता, “आत्मनिर्भर किसानों” को ‘संविदाकिसान’ बनने पर मजबूर कर देंगे | किसान कृषि-निगमों के हाथों अपनी उत्पादक स्वायत्तता खो देंगे और अपनी ही जमीन पर मजदूर बनकर रह जाएंगे।
कृषक उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धनऔरसुविधाकरण ) अध्यादेश, कृषक (सशक्तिकरणऔरसंरक्षण) समझौता मूल्य आश्वासन और कृषिसेवाओं हेतु अनुबंध अध्यादेश और आवश्यक वस्तु (संशोधन) अध्यादेश – यह तीनों अब संसद द्वारा पारित कानून बन चुकेहैं, जो भारतीय कृषि की रीढ़ को कमजोर करेंगे। इसके साथ-साथ यह एक ऐसे समुदाय का अपमान भी है जो भारत के सभी वर्गों का सदियों से पोषण करता रहा है।
कृषि राज्य का विषय है। और केंद्र द्वारा अध्यादेश जारी करने से पहले संबंधित राज्य सरकारों से परामर्श नहीं करना केंद्र सरकार का एकऔर गलत कदम था ,क्योंकि इनका दायरा सीधे केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता है। इस एक तरफा फैसले से एक बार फिर मोदी सरकार द्वारा हमारी संघीय राजनीति और सहकारी संघवाद को कमजोर किया है; और वो भी ऐसे समय में जब केंद्र को वास्तव में राज्यों की मदद के लिए हाथ बढ़ाना चाहिए, जो भारी वित्तीय संसाधनों के बावजूद किसानों को संकट से लड़ने में मदद कर रहे हैं।
कानून का अध्यादेश वाला मार्ग सरकार द्वारा कृषि का कार्पोरेटाइज़ेशन करने की जल्दबाज़ी हताशा को ही दर्शाताहै | और आंकड़े भी इस बात की गवाही देतेहैं कि विपक्ष में रहते हुए हमेशा लोकतंत्र की दुहाई देने वाली भाजपा ने सत्ता में आते किस तरह बिना बहस, मुबाहिसों की बजाय कार्यकारी आदेशों के माध्यम सेसंसदीय परंपरा और मर्यादाओं को दरकिनार करने की तत्परता दिखाई है। यूपीए सरकार ने 2004 से 2009 के बीच सालाना औसतन 7.2 अध्यादेश जारी किए। यूपीए -2 के दौरान यह घटकर प्रतिवर्ष 5 रह गया था। इसके विपरीत, मोदी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में प्रतिवर्ष औसतन 10 अध्यादेश जारी किए। दरअसल भाजपा शासन ने अब संसद को एक अध्यादेश पारित करवाने के कारखाने में तब्दील कर एक तरह से संसदीय लोकतंत्र को खतरे में डाल दियाहै।
पिछले छह वर्षों में, सरकार किसानों को व्यवस्थित रूप से मुख्यधारा की अर्थव्यवस्था से अलग कर रही है। मोदी के सत्ता में आने के तुरंत बाद, भूमिअधिग्रहण अधिनियम, 2013 को रद्द करने के उनकी सरकार के प्रयास राजनीतिक राजनीतिक विद्वेष और दुर्भावना से ही ग्रसित थे। उर्वरक, ट्रैक्टर और अन्य कृषि मशीनरी पर जीएसटी की उच्च दरों के साथ यह प्रवृत्ति जारी रही, नतीजा कृषि लागत में भारी वृद्धि के रूप में सामने आया।
मोदी सरकार की नीतियों ने किसानों कितना कल्याण किया है , ये आधिकारिक आंकड़ों चीख चीख कर उसकी असलियत बता रहे हैं | 2019 में, भारत में खेती पर निर्भर 28 लोगों ने हर रोज आत्महत्या की । राष्ट्रीय अपराधरिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, 2019 में कृषि क्षेत्र में शामिल 10,281 व्यक्तियों ने अपना जीवन समाप्त कर लिया; जो भारत में आत्महत्याओं की कुल संख्या के 7.4 प्रतिशत के बराबर था। केंद्रीय कृषि मंत्री द्वारा 15 सितंबर को लोकसभा में दिए गए एक उत्तर के अनुसार, 2014-2015 में 4260 किसानों ने ऋण ग्रस्तता और दिवालियापन के कारण आत्महत्या कर ली। जबकि सरकार ने बताया कि आगे के वर्षों में ऋणग्रस्तता और दिवालियापन के कारण किसानों की आत्महत्या का कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है !
कृषि में उत्पादन और मूल्य जोखिम दोनों होते हैं | न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) एक साधन है जो किसानों को बुवाई के मौसम से पहले, उनकी फसल के लिए उचित निश्चित मूल्य की गारंटी देता है ताकि किसानभाई अधिक निवेश और उत्पादन को प्रोत्साहित हो सकें | तीनों किसान विरोधी विधानों में से किसी में भी कोई भी ऐसा भाग नहीं है जो एमएसपी के नीचे खरीद को असंभव बना दे। इसके अलावा, कृषि उपज विपणन समिति (एपीएमसी) अधिनियम के तहत, जिसने किसान की उपज की खरीद की सुविधा प्रदान की है, के द्वारा सरकार ने किसानों का शोषण करने के लिए निजी कॉर्पोरेट घरानों को खुला हाथ दे दिया है।
कृषक उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धनऔरसुविधाकरण ) कानून के साथ, किसान एमएसपी और अन्य सुरक्षा खो देंगे जो उन्हें लगातार पिछली सरकारों से मिल रही थी | एपीएमसी अधिनियम के तहत स्थापित मौजूदा मंडियों को व्यापार क्षेत्र की परिभाषा से बाहर रखने की वजह से यह एपीएमसी मंडिया अपनी भौतिक सीमाओं तक सीमित रह जाएंगी और इसका फायदा बड़े कॉर्पोरेट खरीदारों को मिलेगा। एक बार जब कमीशन एजेंट तस्वीर से हटा जाएंगे तो यह क़ानून कॉर्पोरेट्स के एकाधिकार को और तेज करेगा। इस क़ानून की धारा 8 ने किसान और व्यापारी के बीच लेन देन से उत्पन्न किसी भी विवाद के मामले में नागरिक अदालतों से संपर्क करने के किसान के अधिकार को छीन लिया है। इस धारा में व्यापारियों के लिए जिस सुलह और समझौता तंत्र की व्यवस्था की गई वो किसानों का भला कम वैधानिक शोषण ज्यादा करेंगे | इन विधानों का संयुक्त प्रभाव ग्रामीण क्षेत्रों में क्रय शक्ति के कमजो होने और कृषिसंकट को और बढ़ाने के रूप में सामने आएगा |
किसान अब समूचे देश में सड़कों पर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। यहां तक कि भाजपा के सबसे पुराने सहयोगियों में से एक,अकाली दल ने केंद्रीय मंत्रिमंडल में अपने अकेले प्रतिनिधि – हरसिमरत कौर बादल से इस्तीफा तक दिलवा दियाहै। भाजपा को छोड़कर बाकी सभी लोग यह जानते हैं कि ये तीन विधाननतो आर्थिक रूप से और नही राजनीतिक रूप से व्यवहार्य हैं। वे कृषि पर वैसा ही नकारात्मक प्रभाव डालेंगे, जितना कि एमएसएम ई क्षेत्र पर जीएसटी और नोटबंदी ने डाला था।
सरकार ने राज्यसभा में इस क़ानून के खिलाफ विपक्ष की सामूहिक आवाज को दबाने के लिए माइक्रो फोन कोम्यूट कर ने में तो कामयाबी हासिल की, लेकिन यह उन 62 करोड़ किसानों की आवाज को कैसे दबाएगी जो अब सरकार के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद कर रहेहैं ? सरकार कोइ न किसानों की आवाज जरूर सुननी चाहिए। किसानों को खेती की लागत को कम करने के उपाय उपलब्ध कराने चाहिए । इसे विशेष रूप से सिंचाई, भंडारण, अनुसंधान और विकास के लिए कृषि में सार्वजनिक निवेश को बढ़ाना चाहिए। और उनकी उपज के लिए उचित मूल्य की गारंटी प्रदान करनी चाहिए |
समय की मांग है कि एमएसपी को कानूनी रूप दिया जाए जैसा कि कृषि लागत और मूल्य आयोग ने अनुशंसा की थी न कि इसे तुग़लकी फ़रमान की तरह समाप्त किया जाय | मार्च 2018 में कृषि पर स्थायी समिति की 47 वीं रिपोर्ट ने किसानों के लिए “व्यापकन्याय” की सिफारिश की थी | सरकार की नीतियों को इसी सिफ़ारिश की ओर क़दम बढ़ाने चाहिए, न कि हमारे देश की कृषि अर्थव्यवस्था को ध्वस्तकर ने की दिशा में | सरकार को किसान के हाथों में अधिक धन उपलब्ध कराने की दिशा में काम करना चाहिए क्योंकि इससे अर्थ व्यवस्था पर तीन तरफ़ा सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। किसानों की बढ़ती क्रय शक्ति से ग्रामीण मांग में वृद्धि होती है, जिसके परिणाम स्वरूप खपत अधिक होती है और इस प्रकार सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि होती है। सरकार का लक्ष्य “किसान युक्त भारत” होना चाहिए । दुर्भाग्य से, बीजेपी हमें ” किसान मुक्त भारत ” की ओर अग्रसर कर रही है।
लेखक सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता एवं भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रवक्ता हैं |
(यहाँ उन्होंने निजी विचार व्यक्त किए हैं )