अपनी तपस्या, साधना व शिक्षाओं के माध्यम से समाज में प्रकाश फैलाने वनांचल के ज्योतिपुंज सन्त गहिरा गुरु जी की जयंती इस वर्ष 4 अगस्त को मनाई जाएगी।
सनातन धर्म व सामाजिक चेतना के अग्रदूत परम पूज्य संत श्री संत गहिरा गुरु जी का जन्म वर्ष 1905 में श्रावणी अमावस्या को छत्तीसगढ़ राज्य के रायगढ़ जिले में स्थित लैलूंगा विकासखंड के ग्राम “गहिरा” में हुआ था। गहिरा ग्राम लैलूंगा से 15 किलो मीटर की दूरी पर उड़ीसा से लगा सघन वनों से घिरा पर्वतीय क्षेत्र है। उनका जन्म कंवर परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम बुदकी कंवर और माता सुमित्रा थीं। उनका वास्तविक नाम संत रामेश्वर दास जी था। लेकिन गहिरा ग्राम में जन्म होने के कारण उनकी ख्याति ‘गहिरा गुरु’ के नाम से प्रसारित हुई।
गहिरा गुरु एक महान समाज सुधारक, दार्शनिक एवं तपस्वी सन्त थे। उनके पिता जी एक सम्पन्न किसान थे व गांव के मुखिया थे। बालक रामेश्वर का लालन-पालन भी अन्य वनवासी बच्चो की तरह हुआ था। लेकिन किशोरावस्था तक पहुंचते पहुंचते वे गम्भीर व मौन रहने लगे। वे रात भर जंगलों में भटकते और कभी-कभी समाधिस्थ हो जाते। समाधि टूटने पर वे चरवाहों को प्रवचन सुनाते। ग्रहस्थ आश्रम में प्रवेश करने के बाद भी उनकी साधना पर कोई असर नहीं पड़ा।
उन्होंने गहिरा में महाशिवरात्रि के दिन एक मंदिर का निर्माण करवाकर उसमें शिवलिंग की प्रतिष्ठा की। वे मन्दिर और घर के बरामदे में प्रतिदिन संकीर्तन करते। उनके भक्तों की संख्या दिनोदिन बढ़ती गयी। किंतु वे चाहते थे कि लोग किसी एक व्यक्ति से न जुड़कर एक संगठन से जुड़ें। इसी परिप्रेक्ष्य में वर्ष 1943 उन्होंने सनातन धर्म संत समाज की स्थापना की। उन्होंने छत्तीसगढ़ के सरगुजा, जशपुर, कोरिया, रायगढ़ सहित पड़ोसी राज्य झारखण्ड, उत्तरप्रदेश से लगे क्षेत्रों में रहने वाले वनवासियों व ग्रामवासियों में सामाजिक चेतना और जागरूकता लाने का कार्य किया। उनके सूत्र वाक्य “चोरी दारी हत्या मिथ्या त्यागें, सत्य अहिंसा दया क्षमा धारें” ने लाखों मानवों के जीवन मार्ग को प्रशस्त किया।
उन्होंने ‘धान मेला’ के माध्यम से ग्रामीणों की आर्थिक स्थिति में सुधार किया। वाराणसी संस्कृत विश्वविद्यालय से सम्बन्धता लेकर उन्होंने संस्कृत महाविद्यालय खोला। कालांतर में अनेक विद्यालय व छात्रावास प्रारंभ किये। 1947 में नौवाखली में दंगे हुए, तो उन्होंने देश मे शांति बनाए रखने के प्रयासों में भी सहभागिता की। समाज को संगठित करने के उद्देश्य से उन्होंने दशहरा, रामनवमी और शिवरात्रि के पर्व सामूहिक रूप से मनाना प्रारंभ किया।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयं सेवक श्री भीमसेन चोपड़ा से उनकी अति घनिष्ठता थी। वे प्रायः इनसे परामर्श करते रहते थे। इनके कारण उस क्षेत्र में चल रहे ईसाइयों के धर्मान्तरण के षड्यन्त्र विफल होने लगे। छत्तीसगढ़ के जशपुर में कल्याण आश्रम के नवीन भवन के उद्घाटन कार्यक्रम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री माधवराव सदाशिव गोलवलकर ‘गुरुजी’ से भेंट के पश्चात गहिरा गुरु जी के संघ से निकट संबध बन गये।
उन्होंने वनवासियों में नवचेतना का संचार किया। ईसाई मिशनरियों के प्रभाव में अपनी संस्कृति से विमुख हो धर्मांतरण कर रहे वनवासी समाज को सनातन धर्म की पुनः स्मृति दिलाने का कार्य किया। उन्होंने उरांव जनजातीय के बंधुओं को समझाया कि वे पिछड़े व कमजोर नहीं हैं, बल्कि महाबली भीम के पुत्र घटोत्कच के वंशज हैं।
गहिरा गुरु ने अपने कार्य के कुछ प्रमुख केन्द्र बनाये। इनमें से गहिरा ग्राम, सामरबार, कैलाश गुफा तथा श्रीकोट एक तीर्थ के रूप में विकसित हो गये। वनवासी समाज के बीच में घूम घूमकर उनके रहन सहन, जीवन स्तर व चरम में सुधार लाने के लिए गहिरा गुरु जी ने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया।
गहिरा गुरु अलौकिक शक्ति के धनी थे। वे दीन-दुखियों की निःस्वार्थ सेवा को ही प्रथम कर्त्तव्य मानते थे। गृहस्थ आश्रम में रहते हुए भी उन्होंने सदा निष्काम योगी का जीवन जिया। उन्होंने भक्ति, ज्ञान एवं कर्म को साथ-साथ जीवन मे उतारने का सिद्धान्त प्रतिपादित किया।
सुदूर वनांचल में सनातन धर्म की अलख जगाने वाले गहिरा गुरु की इतनी ख्याति हो गयी कि लोग इन्हें भगवान का अवतार मानने लगे। गहिरा गुरु ने वनवासी समाज में सनातन धर्म के दैनिक संस्कारों को दैनंदिनी में पुनः स्थापित करने का कार्य भी किया। सोलह संस्कार, वैदिक विधि से विवाह करना, शुभ्र ध्वज लगाना एवं उसे प्रतिमाह बदलना आदि गहिरा गुरु द्वारा स्थापित सनातन धर्म संत समाज के प्रमुख सूत्र थे।
संत गहिरा गुरु ने समाज में फैली कुप्रथा बलि प्रथा का त्याग कराते हुए वैदिक विधि विधान से पूजन करना सिखाया। साथ ही गुरु-शिष्य परम्परा का भी निर्वाह किया। लोगों को उन्होंने सदभावना, प्रेम, शांति का पाठ सिखाया एवं अपनी सभ्यता -संस्कृति की रक्षा और इसके अस्तित्व को बचाये रखने के उद्देश्य से परिचित कराया।
संत गहिरा गुरु के सिद्धान्त, साधना, निःस्वार्थ सेवाभावना आज भी समस्त मानव समाज का मार्ग प्रशस्त कर नई ऊर्जा प्रदान कर रही है।
उन्होंने 92 वर्ष की आयु में 21 नवम्बर, 1996 देवोत्थान एकादशी के पावन दिवस पर ब्रम्हलीन हो गए।
छत्तीसगढ़ सरकार ने उनकी स्मृति में सरगुजा विश्वविद्यालय का नाम “सन्त गहिरा गुरु विश्वविद्यालय” कर दिया। साथ ही राज्य सरकार द्वारा प्रतिवर्ष परम् पूज्य गुरूजी की स्मृति में गहिरा गुरू पर्यावरण पुरस्कार भी दिया जाता है।
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प्रियंका कौशल ( स्थानीय संपादक ‘भारत एक्सप्रेस’ )
रायपुर
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