स्नेह, प्रेम, त्याग, मानवता, ईमानदारी, सेवा, त्याग के बीजों का अंकुरण है ” मन का मौसम ” पुस्तक

प्रियंका कौशल ( वरिष्ठ पत्रकार )                                                     पुस्तक समीक्षा     

क्या कविताएं लिखने वाले किसी अन्य लोक में विचरण करते हैं, या फिर उनकी अपनी नितांत अनोखी-अलग दुनिया है। किसी अंतर्मुखी कवि की दृष्टि, सोच और जीवन का अनुभव जब शब्दों में ढलता है तो उसके भाव जीवंत हो उठते हैं। उसकी भावनाओं का संचार लम्बा पथ तय करते हुए जनमानस तक पहुंचती है। पाठकों के कठोर ह्दय को कोमल बनाती हैं। उसमें स्नेह, प्रेम, त्याग, मानवता, ईमानदारी, सेवा, त्याग के बीजों का अंकुरण करती हैं। जो पहले से ही कोमल ह्दय हैं, उनके अंतर्मन में आवेगों की वर्षा करती हैं और जो स्वयं साहित्यसेवी हैं, उनका मन तो जैसे गदगद कर देती हैं।
मैंने कवि के लिए अंतर्मुखी विशेषण का प्रयोग इसलिए किया क्योंकि मेरे हाथों में एक बहुत महत्वपूर्ण और प्रासंगिक या कहें समसामयिक कविताओं की एक ऐसी पुस्तक आयी कि जिसे पढ़ते-पढ़ते मैं कभी कल्पना तो कभी यथार्थ के धरातल पर क़दमताल करती रही।
एक प्रशासक, एक अभिनेता, एक लेखक, विश्लेषक, राजनीतिक समझ वाला व्यक्ति, साहित्यकार नहीं लेकिन एक कलमकार, खेलों में रुचि रखने वाला, धर्मपरायण और एक अच्छे पति, पिता, भाई के रूप में संबंधों को खूबसूरती से निभाने वाले श्री रवि तिवारी ही मन का मौसम ला सकते हैं।
रवि जी की पुस्तक का टाइटल देखकर बरबस ही एक पुराना गीत याद आता है.. पतझड़, सावन, बसन्त, बहार, एक बरस के मौसम चार..पांचवां मौसम प्यार का…लेकिन तनिक ठहरिए साहब रवि जी छठवाँ मौसम ले आये हैं, जो ‘मन का मौसम’ है।
मन का मौसम इसलिए क्योंकि अंदर, बाहर दोनों ही दुनिया में से गुजरती हुई चलती हैं। रवि जी ने भी मन से गुजरने वाले हर भाव को कविता के रूप में व्यक्त किया है। जो उनसे प्रत्यक्ष मिले हैं, वे जानते हैं कि रवि जी बोलने में कम सुनने में ज्यादा विश्वास रखते हैं। और शायद उससे भी कहीं ज्यादा लोगों को, स्थितियों को परिस्थितियों को, भावनाओं को ऑब्जर्व करने में।
वे आपको सुनते हुए बोलते कम, मुस्कुराते ज्यादा हैं। उनकी यही खूबी उनकी कविताओं में झलकी है। वे कह कम रहे हैं, अंतर्मन को स्पर्श ज्यादा कर रहे हैं। उनके सूक्ष्म निरीक्षण, ऑब्जरवेशन का परिणाम है कि उन्होंने बारीक विषयों से लेकर दिन-प्रतिदिन हमारे सामने आने वाले विषयों पर भी क्या खूब लिखा है। समाज के हर तबके पर लिखा है तो उम्र के उस मोड़ के बारे कविता की है, जिस पर पहुंचने की कोई कल्पना नहीं करना चाहता। वे कहते हैं वे स्वान्त सुखाय लिखते हैं। लेकिन ऐसा तब है जब वे रायपुर की गलियों पर भी लिखते हैं, लेकिन दूसरे ही क्षण देश की मिट्टी से प्यार जताती कविता हमें बताती है कि वे परमार्थ के भी कवि हैं।
उनकी कविताओं का संसार इतना विशाल है कि पहली ही पुस्तक में 150 कविताएं प्रस्तुत की हैं।
रवि जी की कविता मन का मौसम से शुरू होकर जीवन के कई अफसाने सुनाती हुई ज़िंदगी के सार पर खत्म होती है। मैं इसे खत्म ना कहते हुए कहूँ की यहां उन्होंने पूर्ण विराम नहीं बल्कि अल्प विराम लिया है तो ज्यादा उचित होगा क्योंकि अभी वे रूकने वाले नहीं है।
रवि जी ने कविताओं के जरिये वर्तमान व्यवस्था पर गहरा कटाक्ष किया है। उसकी एक बानगी देखिये-

ईमानदार हाज़िर हो
ईश्वर के कोर्ट में
लग रही थी आवाज़
एक कमजोर से आदमी
कटघरे में हाज़िर हो गया
कोर्ट खचाखच भरी थी
नाना प्रकार के विचारों
लोगों के प्रश्नों के साथ
शुरू हुआ प्रश्नों का सिलसिला
अपने आपको ईमानदार कहते हो
नहीं,मैंने तो ऐसा कभी नहीं कहा
हाँ, जग ऐसा ही कहता है
ऐसा मैंने भी सुना है।

एक कटाक्ष और पढ़िए…
जीवन का फ़लसफ़ा में कवि कह रहे हैं कि

मुझे ज़िंदगी का
नहीं है इतना तज़ुर्बा
लेकिन सुना है मैंने
लोग सादगी में जीने नहीं देते

सादगी की बातें तो करते सभी हैं
पर पसन्द कोई करता ही नहीं

जीना चाहते हैं सभी
ऐशो आराम की ज़िंदगी
सारी भौतिक सुख सुविधाओं के साथ

जो जिये सादगी से
उसे कहा जाता है गरीब नौटंकी बाज़

उनकी कविताओं में प्रकृति भी है तो ईश्वर भी-
है अमिया लदी हुई पेड़ों पर
उसके पत्ते सारे हरे हरे
है उस पर चिड़ियों का बसेरा
कोयल कहके कुहुकुहू
उगता सूरज पहट सवेरे

रब को सादर प्रणाम में वे किसी दार्शनिक की तरह प्रस्तुत होते हैं, देखिये-
रब ने तुझे जो दिया
क्या किसी से कम है
नहीं देता तो क्या कर लेते
जो नहीं दिया उसमें तेरा सुख नहीं
जिसे दिया है दुख उससे पूछो
तेरे सुख की कीमत कुछ कम नहीं

राजनीतिक माहौल में बीते जीवन का असर कविता में कैसे न झलके,यहां उनका अंदाज़ चुटीला है देखिये-

चुनाव की बेला है
लोकतंत्र का मेला है
प्रजातन्त्र के घाट पर
भई नेताओं की भीड़
वोट माँगत सभी हैं
देखें किसे देत जनवीर

चूंकि रवि जी के सर्कल में कई पत्रकार मित्र भी हैं, तो लाज़मी था कि उन पर भी कलम चली, पढ़िए और आनंद लीजिये-

हम बेबस नहीं, पत्रकार हैं
पर बेबसी के शिकार हैं
कलम में हमारी धार है
पर ऊपर से पैसों की ही
धार की जबरदस्त मार है

लिखते नहीं, लिखवाए जाते हैं
उसी की तनख्वाह पाते हैं

रवि जी की इस पुस्तक में दर्द है, साहस है, कोरोना भी है, तो लॉक डाउन भी। चीन को ललकारता जज़्बा है तो भारत के रणबांकुरों का शौर्य भी। गांव के खेत-खलिहान भी हैं तो रायपुर और छत्तीसगढ़ भी। बचपन, जवानी और बुढापा भी है। जीवन के अनुभवों, चाहे कटु हो या स्नेहिल, जमकर लिखा है। काबिले गौर ये है कि उन्होंने बेबाकी से लिखा है। ये बेबाकी में अपनी पिछली पीढ़ी से आई है। दूसरी महत्वपूर्ण बात की साफगोई के साथ कविता में क़िस्सागोई अंदाज़ भी नया और निराला है।
वे स्वीकारते हैं कि वे न तो साहित्यकार हैं न पत्रकार। वे तो केवल छंदों के जरिये अपने मन की बात करने मित्रों तक पहुंचाने का शौकीन रहे हैं। जिसकी परिणति ये पुस्तक है। लेकिन जब आप मन का मौसम पढ़ते हैं, तो रूकते नहीं। बस पढ़ते चले जाते हैं। रवि जी की कविताएं कहीं गुदगुदाती हैं, कहीं झंझोड़ती हैं, कहीं चिंतन-मनन करने पर विवश करती हैं तो कहीं अनुभव का खजाना लुटाती प्रतीत होती हैं।

और अंत में मैं भी अपनी बात पर विराम लगाऊं, सुधि पाठकों उसी शब्द, विशेषण, खूबी पर ले जाना चाहूंगी, जिसका जिक्र मैंने शुरू में किया था, अंतर्मुखी।

अंतर्मुखी अवस्था के लिए ज्ञान और ज्ञान के लिए अंतर्मुखी अवस्था की जरूरत होती है। यही कविवर रवि तिवारी जी की विशेषता है। ज्ञान की धारणा करने के लिए अंतर्मुखी रहने का उनका अभ्यास ही इतनी सुंदर सामयिक कविताओं की पुस्तक को साकार कर पाया है। क्योंकि जो अंतर्मुखी नही है वह कर्मेन्द्रियों से न्यारा होकर अथवा कछुए समान समेट कर रह नही सकता। मन में मथ कर तैयार हुआ मन का मौसम प्रस्तुत है। इसे पढ़िए आनंद उठाइये और कवि का स्वागत कीजिये।

जाते-जाते एक अत्यंत जरूरी और अच्छी पुस्तक के प्रकाशन के लिए वैभव प्रकाशन रायपुर को भी बधाई।

अपनी बात खत्म करते-करते रवि जी की ही एक कविता-

स्वान्तः सुखाय

ना मैं साहित्यकार हूँ
ना कथाकार न कविकार
ना कलाकार ना कोई पत्रकार
तो क्या मैं लिख नहीं सकता
बोल नहीं सकता
या समझ नहीं सकता

सब कर सकता हूँ मैं
मेरे पास भी दिल दिमाग है
देखने समझने की शक्ति है
घटना-दुर्घटनाओं से
रोज होता हूँ दो चार…

 

प्रियंका कौशल
वरिष्ठ पत्रकार/लेखक
रायपुर
9303144657

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