जशपुर महाराज का अनुरोध,नारायणपुर का अघोरेश्वर आश्रम और शिवलिंग…

{किश्त 224}

जशपुर नगर से दक्षिण दिशा में रायगढ़ रोड पर लगभग 30 किलोमीटर के बाद एक तिराहा आता है । वहाँ से पक्की सड़क पश्चिम में बगीचा जनपद की ओर जाती है,8/10किलोमीटर पर नारायणपुर गाँव स्थित है,आश्रम,गाँव के उत्तर में चिटक्वाइन गाँव की सीमा में बना है। इस आश्रम की जमीन एवं खेती योग्य भूमि महाराजा विजयभूषण सिंह जूदेव,जशपुरनगर ने दान में दी थी।आश्रम में तान्त्रोक्त विधि से देवीपीठ कानिर्माण अघोरेश्वर ने कराया गया है। निवास हेतु भवन एवं अन्य साधन जुटाये गये हैं,बाबा ने इस आश्रम में अनेक अनुष्ठान कर इस पीठ को जागृत कर दिया है । यहाँ समय,काल से अनुष्ठान, पूजन करने से सिद्धी लाभ आवश्यसम्भावी है।राजा जशपुर के अनुरोध को अघोरेश्वर महाराज बहुत दिनों तक नहीं टाल सके।1958 में महाराजा के साथ जशपुर पधारे। यह पहाड़ी जंगली क्षेत्र था।यातायात की सुविधा तो अल्प ही थी लेकिन सुरम्य प्राकृतिक छटा,भोले आदिवासियों ने उनका दिल जीत लिया,क्षेत्र में भीषण गरीबी,अशिक्षा ने बरबस ध्यानआकृष्ट किया। जनसेवा की आवश्यकता महसूस की, महाराजा का भी अनुरोध बढ़ता गया।इस तरह क्षेत्र की जनसेवा हेतु आश्रम स्थापना के प्रस्ताव पर स्वीकृति दी, जशपुर से 30 मील दूर नारायणपुर में 1959 में आश्रम की स्था पना हुई।नाम, जनसेवा आश्रम चिटकवाईन रखा गया। इस आश्रम के लिये भूमि जशपुर के महाराजा विजय भूषण सिंहदेव ने अघोरेश्वर को अर्पित की थी आश्रम के प्रांगण में विशाल वट-वृक्ष है। इसी के जड़ के पास यहाँ पंचमुख शिवलिंग भी है। इस वृक्ष में एक सर्प भी निवास करता है, जो प्राय: देखा जाता है। काला न्तर में आश्रम का बहुत विकास हुआ।खेती योग्य भूमि की व्यवस्था की गयी। आश्रम प्रांगण में भगवती का एक छोटा मंदिर बनाया गया है।गणेश की भव्य- मूर्ति स्थापित की गयी है, वहीं 4 मन वजन का एक विशाल घंटा भी लगायागया है।आश्रमवासियों, आगु न्तकों के आवास के लिए भवन, गोशाला गोदाम, रसोईघर का भी निर्माण हुआ।अघोरेश्वर महाप्रभु का निवास,आश्रम की ऊपरी मंजिल पर है।नारायणपुर आश्रम की स्थापना,निर्माण के में ईश्वरगंगी के केदार सिंहफोकाबीर,सकलडीहा के विश्वनाथ साव का नाम जुड़ा हुआ है। दोनों 1953 में बाबा के निकट में उस समय आये,जब बाबा हरि हरपुर आश्रम में रहते थे। अघोरेश्वर ने इन्हे आश्रम की भूमि देखने, व्यवस्था के लिए भेजा था। विशाल बरगद वृक्ष की चर्चा ऊपर आयी है, बाबा जब भी नारायणपुर में रहते, सायं 4-5 बजे विश्राम कर उठते थे,कभी पैदलतो कभीहाथी पर सवार होकर जंगल परि भ्रमण हेतु निकल जाते थे।एक बार आश्रम से पश्चिम दिशा की ओर निकल गये। उस ओर कपरी नदी बहती थी। अकस्मात उनकी दृष्टि गड़े शिवलिंग पर पड़ गयी। जशपुर राजकाल में वहां महाराजा की ओर से विधि वत,नियमित पूजा होती थी, शिवरात्रि के दिन गांव के निवासी भी एकत्रित होकर पूजा किया करते थे। शिवलिंग को देखकर बाबा ने कहा–

“इनका के आश्रम ले चल। ओहिजा हमेशे इनकर पूजा होई।”

पर वह शिवलिंग लोगों के प्रयास से नहीं निकला…. कुछ दिनों बाद,एक दिन बाबा बैगा को लेकर वहां पहुंचे। उन्होंने शिवलिंग को स्पर्श कर दिया और बैगा को धरती से निकालने का आदेश दिया।अल्प परिश्रम से ही बैगा ने उस शिवलिंग को उत्खनन कर निकाल लिया,बाबा उसे अपने साथ लेकर चले।आश्रम परिसर में उसे बरगद के वृक्ष के नीचे स्वयं स्थापित किया था, तब से नियमित पूजा होती है।अब संभवराम विशेष अवसरों पर उस शिवलिंग की पूजा करते हैं।

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