इन्दौर : भारत माता की वह बेटी जिसने 275 साल पहले ही कुरीतियों की बेड़ियों को तोड़ डाला। संकट के समय जब जरूरत पड़ी तो अपनी प्रजा के लिए घोड़े पर सवार होकर हाथ में खड़ग लिए जंग भी लड़ी। धर्म का संदेश फैलाया, संस्कृति संरक्षण, बालिका शिक्षा, महिला अधिकारों और औद्योगीकरण को बढ़ावा दिया।
होलकर साम्राज्य की महारानी अहिल्याबाई होलकर भारतीय इतिहास की कुशल महिला शासकों में से एक रही हैं। इनका जन्म 31 मई, 1725 को हुआ था और 13 अगस्त, 1795 को निधन हो गया था। महाराष्ट्र में अहमदनगर जिले के जामखेड के नजदीक चोंडी गांव में जन्म लेने वाली अहिल्याबाई का शुरुआती जीवन बड़ी कठिनाईयों से गुजरा।
उनके पिता मनकोजी सिंधिया बीड जिले के रहने वाले एक सम्मानित परिवार से संबंध रखते थे और गांव के पाटिल थे। अहिल्याबाई कभी स्कूल नहीं गईं थीं। उन्हें उनके पिता ने ही पढ़ना और लिखना सिखाया था। 1733 में यानी महज आठ साल की उम्र में ही उनका विवाह मल्हार राव खांडेकर के बेटे खांडेराव होलकर से कर दिया गया था। इसके बाद से ही उनके जीवन ने एक विशेष मोड़ लिया।
मल्हार राव खांडेकर मालवा राज्य के राजा व पेशवा थे। 1745 में उन्होंने अपने बेटे मालेराव होलकर को जन्म दिया। 1754 में उनके पति खांडेराव होलकर 1754 में कुम्भार के युद्ध के दौरान वीरगति को प्राप्त हुए। तब अहिल्याबाई की उम्र 21 वर्ष की थी और वे विधवा हो गईं। उस समय की प्रथा के अनुसार, पति की मौत के बाद पत्नी को सती बनना पड़ता था। अहिल्याबाई ने इसका विरोध किया और सती बनने से इनकार कर दिया। इस निर्णय में उनके ससुर मल्हार राव खांडेकर भी उनके साथ थे। लेकिन विधि को कुछ और ही मंजूर था।
1766 में मल्हार राव खांडेकर भी दुनिया को अलविदा कह गए तो अहिल्याबाई को अपना राज्य ताश के पत्तों के जैसा बिखरता नजर आ रहा था। तब अहिल्याबाई ने अपने बेटे मालेराव होलकर को सिंहासन संभलाया था। लेकिन अगले ही साल एक बार उन पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा और उनके जवान बेटे मालेराव होलकर का निधन हो गया। यह दौर ऐसा था जब इंदौर का सिंहासन खाली था। अहिल्याबाई पति, ससुर और जवान बेटे को खो चुकी थी। शत्रु राज्य के बाहर लालची निगाहों से टकटकी लगाकर इसी मौके की तलाश में थे। इस स्थिति को भांपकर अहिल्याबाई ने राजगद्दी की बागडोर खुद अपने हाथ में संभाली और इंदौर की शासक के तौर पर शपथ ली।
मालेराव के निधन के बाद अहिल्याबाई ने तत्कालीन पेशवा कोमालवा के प्रशासन को संभालने की अनुमति मांगी थी। अनुमति मिलने के साथ ही वे मालवा की शासक भी बन गईं। लेकिन आस-पास के राजाओं को यह रास नहीं आया, पर होलकर सेना उनके समर्थन में खड़ी रही और अपनी महारानी के हर फैसले में उनकी ताकत बनी। इस बीच, मालवा को कमजोर जानकर और राज्य हड़पने के उद्देश्य से राघोवा पेशवा ने अपनी सेना इंदौर भेजी। लेकिन यह अहिल्याबाई की राजनीतिक कूटनीति का ही परिणाम था कि उनके एक पत्र से यह युद्ध टल गया और आक्रमण करने वाले पेशवा ने उन्हें उनके राज्य की रक्षा का वचन भी दिया।
पेशवा राघोवा के लिए यह पत्र किसी तीखे तीर से कहीं ज्यादा अधिक तीखा था और उसने मजबूरन अपना इरादा बदल दिया। मालवा की यह रानी एक बहादुर योद्धा और प्रभावशाली शासक होने के साथ-साथ कुशल राजनीतिज्ञ भी थीं। उन्होंने अपने विश्वसनीय सेनानी सूबेदार तुकोजीराव होलकर (मल्हार राव के दत्तक पुत्र) को सेना-प्रमुख बनाया था। ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारी बनकर आए अंग्रेजों के फूट डालो और राज करो के इरादे उन्होंने पहले ही भांप लिए थे। यह उनकी दूरदर्शिता का ही परिणाम था कि उन्होंने तत्कालीन पेशवा को भी अंग्रेजों से सतर्क रहने के लिए चेतावनी पत्र पहले ही भेज दिया था।
इतिहास के पन्नों में उल्लेख मिलता है कि अहिल्याबाई हर दिन लोगों की समस्याएं के निराकरण के लिए सार्वजनिक तौर पर सभाएं रखतीं थीं। वहीं, भारतीय संस्कृतिकोश के मुताबिक अहिल्याबाई ने अपने शासन के दौरान न केवल इंदौर बल्कि देशभर में कई महत्वपूर्ण विकास कार्य कराए। उन्होंने बांध, घाट, टैंक और तालाब भी बनवाए तो जरूरी स्वास्थ्य सुविधाओं को उपलब्ध कराया। उनके शासनकाल के दौरान, कला और संस्कृति भी पुरजोर तरीके से विकसित हुई। उन्होंने, हरिद्वार, काशी विश्वनाथ, अयोध्या, कांची, द्वारका, बद्रीनाथ आदि धार्मिक स्थलों को भी संवारा। उनकी शासन व्यवस्था ऐसी थी कि लोगों ने उन्हें संत की उपाधि भी दी। उनके शासन के दौरान सभी उद्योग फले-फुले और किसान सभी आत्मनिर्भर थे। 13 अगस्त 1975 को अहिल्याबाई का निधन हो गया था।