छ्ग के ‘किसबिन’ नाच की तो अब स्मृतियां ही शेष…

{किश्त113}

‘किसबिन’ एक औरत की मजबूरी का नाम ही हुआ करता था!दिन-सप्ताहहोली पर मनोरंजन करने नाच- गाना करने वाली महिला को किराये पर लिया जाता था,केवल नाच-गाना या कुछ और.? हालांकि सुरक्षा की जिम्मेदारी ली जाती थी, कागज में किराये की रकम के साथ दिन- सप्ताह भी तय होता था,परसामंतवादी रसिक लोगों के लिए उस ‘कागज’ की क्या हैसियत थी जिनके पास मकान, खेत,ज़ेवर तो बरसों से लोगों के बंधक रखे होते थे।सभी किसबिने नृत्य में पारंगत होती थीं,इनके नृत्य में क्षेत्रीय शैली का प्रभाव भी होता ही था,छत्तीसगढ़ में इनके नृत्य यहीं के रंग में रंग गए। किसबिन नाम की महिलाओं का समूह चांपा, रायगढ़,के कुछ गाँवों में निवास करता रहा था, ये पुरुषों को लुभाने वाले नृत्य की विशेषज्ञ होती ही थीं धार्मिक और श्रंगार के साथ,रहीम,कबीर,तुलसीके दोहे कविता जोड़कर तैयार किये गये गीतों की धुन पर नृत्य प्रस्तुत किया जाता था आमतौर पर फागुन माह में गाये जाने वाली फाग की धुन पर नगाड़े की रिद्मपर नर्तकियां अपने मोहक हाव -भाव,अंग संचालन के साथ नृत्य करती थीं।फाग के गीत……

जसोदा धीरे झुलाबे पालना…तोरे ललना
उदक न जाय..जसोदा
धीरे झुलाबे पालना…’
या श्रंगार गीत,
‘दरवाजा
मा खड़े गोरी मारे अँखियाँ..
अरे सेज सुपेती पलंग तकिया…,
दरवाजा मा खड़े गोरी
मारे अँखियाँ…’

जैसे आकर्षित करने वाले गानों पर किसबिने भाव -भंगिमा से नृत्य किया करती थीं।गायक बदल जाते थे,नगाड़े भी बजाने वाले बदल जाते,लेकिन एक अकेली औरत पूरी रात नाचती रहती थी,किसबिन स्त्रियां विवाहनहीं करतीथीं कोई भा गया तो शारीरिक संबंध स्थापित कर सकती थीं,उनसे हुई संतान काखर्च वही पुरुष उठाता है,बच्चे का पालन-पोषण स्त्री ही करती थीं।नर्तकियां,केवल नृत्य ही करती थीं, इनकी इच्छा के विरुद्ध कोई छू भी नहीं सकता था पर बाद में सभी नियम-कायदे समाप्त हो गये..?आखिर एक स्त्री, बड़े लोगों के सामने अपनी शर्तो पर कब तक क़ायम रह सकती थीं..?बिलासपुर पुराने जिले सहित मुंगेली, कवर्धा क्षेत्र इनसे जुड़े कुछ क्षेत्रों पर सन 1984 तक ‘किसबिन’ चर्चा में रहती थीं होली करीब होती थीऔर रात में नगाड़े बजते थे,कुछ स्थानों पर किसबिन रातभर नाच दिखाया करती थीं रस,रंग के प्रेमी तो रात भर किसबिन का नाच ही देखा करते थे।किसबिन का नाच कब प्रारंभ हुआ,यह तो कहा नहीं जा सकता है.? राजा महाराजा,जमींदार भी किसबिन नाच के सूत्रधार होते थे।किसबिन का पेशा ही नाच था,उस जमाने में मनोरंजन का साधन ही यह किसबिन नाच था,राजा- महाराजा,जमींदार ने ही तो किसबिन नाच काआयोजन कराया था। बारनवापारा अभ्यारण्य जाने के रास्ते में बरबसपुर के छेरीगोदरी की गुफाओं के सामने भी कभी किसबिन का डेरा होता था। तखतपुर के करीब बेलपान ग्राम का किसबिन बाजार भी चर्चा में था जहां किराये पर किसबिन मिल जाती थी। 1984 में ‘किसबिन’ परंपरा का मामला तब मप्र विधानसभा में भी उठा था उसके बाद यह बंद सा हो गया..? किसबिन का काम होली में मनोरंजन ही करना था पर कुछ लोग नीचतापर भी उतर जाया करतेथे,बाद में किसबिन,कब,कितनी रकम, कितने दिन के लिये किराये पर लिया जाता है, यह लिखा-पढ़ी का दौर भी शुरू हो गयाथा,लिखा-पढ़ी करने,नगदी रकम देने के साथ ही उसकी सुरक्षा की भी गारंटी लेने की भी बातें तय होने लगी। खैर बाद में किसबिन नाच बंद सा हो गया। कभी होली के 15 दिन पहले से 1माह बाद तक किसबिन नाच काखुले आम प्रदर्शन होता था…? उल्लेख मिलता है कि डॉ खूबचंद बघेल ने भी इस परम्परा का विरोध किया था,होली में नाच होता था।धनी लोग अपना रुतबा दिखाने के लिए यह नाच कराते थे,खुद पैसे लुटाते थे,गांववालों से भी लुटवाते थे।इस नाच को बंद कराने डॉ बघेल ने ग्राम महुदा, तरपोगी में सफल आंदोलन भी किया था…।
(फोटो प्रतीकात्मक)

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