मप्र,छ्ग की राजनीति में ब्राह्मण….

{किश्त 30}

उत्तरप्रदेश में तो कांग्रेस, भाजपा,बसपा, समाजवादी पार्टी ब्राम्हणों को रिझाने में लगी रहती है।पर अविभाजित मप्र तथा छत्तीसगढ़ में तो ब्राम्हणों की उपेक्षा का दौर चल रहा है।म.प्र. में तो मंत्रिमंडल में कुछ ब्राम्हणों को शामिल भी किया गया है। पर छत्तीसगढ़ के मौजूदा भूपेश मंत्रिमंडल में तो केवल एक रविन्द्र चौबे को प्रतिनिधित्व मिला था,वैसे तो विकास उपाध्याय को भी संसदीय सचिव बनाया गया है। आदिवासी,अनुसूचित जाति,पिछड़ा वर्ग की बाहुल्यता के छत्तीसगढ़ में ब्राम्हणों की संख्या अन्य समाज के मुकाबले कम है पर क्या राजनीति में इस समाज को संरक्षण की जरूरत नहीं है….?अविभाजित म.प्र. में राजनीति में ब्राम्हणों का वर्चस्व हुआ करता था।पर आज की राजनीति में उनकी संख्या और रसूख में कमी आई है।एक नवम्बर 1956 को नये म.प्र. के गठन के बाद 1990 तक 5 ब्राम्हण मुख्यमंत्रियों ने लगभग 20 सालों तक शासन किया। उसके बाद के 2 दशकों के बीच म.प्र. का विभाजन हुआ, एक नवम्बर 2000 को पृथक छत्तीसगढ़ राज्य बना। कोई मुख्यमंत्री ब्राम्हण तो नहीं बना सका,मप्र के शिवराज मंत्रिमंडल में केवल पांच ब्राम्हण मंत्री रहे तो छत्तीसगढ़ के डा. रमनसिंह मंत्रिमंडल में आखरी कार्यकाल में तो एक भी ब्राम्हण मंत्री शामिल ही नहीं था……!पुराने म.प्र.में महाकौशल ,छत्तीसगढ़, विंधप्रदेश और भोपाल को मिलाकर नये मप्र का गठन किया गया।तब विंधप्रदेश के मुख्यमंत्री शंभूनाथ शुक्ल,भोपाल के मुख्यमंत्री पं.शंकर दयाल शर्मा, मध्य भारत के मुख्यमंत्री तखत मल तथा महाकौशल विंधप्रदेश की कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष कप्तान अवधेश प्रताप सिंह ने पं. रविशंकर शुक्ल का नेतृत्व स्वीकार किया और वे 1956 में प्रथम मुख्यमंत्री बने।वही म.प्र. के आखरी ब्राम्हण मुख्यमंत्री 1990 में पं.श्यामाचरण शुक्ल बने। बीच के वर्षों में पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र भी मुख्यमंत्री रहे तो मोतीलाल वोरा ने भी मुख्यमंत्री पद का दायित्व सम्हाला। 1977 में जब गैर कांग्रेसी सरकार बनी तो ब्राम्हण समाज के ही कैलाश जोशी ने भी यह दायित्व सम्हाला था। पं.रवि शंकर शुक्ल ने 1 नवम्बर 1956 में 31 दिसम्बर 56 ( 61 दिन) पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र 30 सितंबर 63 से 29 जुलाई 67 (1339दिन) पं.श्यामा चरण शुक्ल 26 मार्च 69 से 28 जनवरी 72 (1092 दिन) दूसरी बार 23 सितंबर 75 से 29 अप्रैल 77 (494 दिन) तीसरी बार 1 दिसम्बर 89 से 1 मार्च 90 (86 दिन), मोतीलाल वोरा 13 मार्च 85 से 13 फरवरी 88 (1068 दिन) दूसरी बार 25 जनवरी 89 से 9 दिसम्बर 89 (318 दिन) तक यह दायित्व सम्हाला। वहीं अविभाजित मप्र में पहली गैर कांग्रेसी सरकार आपातकाल के बाद बनी तो ब्राम्हण समाज के कैलाश जोशी मुख्यमंत्री बने। 26 जून 77 से 17 जनवरी 78 (206 दिन) तक वे मुख्यमंत्री रहे।एक जनवरी 2000 को मप्र से विभाजित होकर पृथक छत्तीसगढ़ राज्य बना तब से म.प्र. और छत्तीसगढ़ में किसी भी ब्राम्हण को सीएम बनने का अवसर नहीं मिला है। अजीत जोगी पहले सीएम बने और उनके मंत्रिमंडल में रविंद्र चौबे, सत्यनारायण शर्मा,अमितेश शुक्ला,तरुण चटर्जी,विधान मिश्रा आदि ब्राह्मण शामिल थे।वैसे कहा जाता है कि अविभाजित मप्र में ब्राम्हणों का राजनीति में वर्चस्व का कारण स्वतंत्रता संग्राम में विशेष भूमिका का होना था।1957 से 1967 तक कांग्रेस केआधे सेअधिक विधायक उच्च जाति के होते थे। उनमें से भी 25 फीसदी ब्राम्हण होते थे। श्यामाचरण शुक्ल जब 1969 में मुख्यमंत्री बने तो उनके मंत्रिमंडल के 40 मंत्रियों में 23 ब्राम्हण थे। इधर1980 के दशक में शुक्ल बंधुओं(श्यामा चरण-विद्याचरण शुक्ल) के राजनीति वर्चस्व से मोती लाल वोरा,मप्र से सुरेश पचौरी जैसे ब्राम्हण नेताओं को आगे बढ़ाने की कोशिश की।बाद में मोती लाल वोरा मप्र के सीएम,केंद्रीय मंत्री,उप्र के राज्यपाल बने तथा बाद में कांग्रेस के कोषाध्यक्ष भी कई सालों तक रहे।वहीं सुरेश पचौरी भी केंद्रीय मंत्रिमंडल के सदस्य रहे।वैसे अर्जुनसिंह ने भी ब्राम्हण समाज की उपेक्षा नहीं की यह तय है। 1980 में जब अर्जुन सिंह सीएम बने तो उस समय की 320 विधायकों की विधानसभा में 50 ब्राम्हण विधायक थे।1980 की विधानसभा टिकट वितरण में अर्जुनसिंह की बड़ी भूमिका थी।छत्तीसगढ़ में अविभाजित म.प्र. के समय से मुख्यमंत्री तो ब्राम्हण समाज के बनते रहे वहीं मंत्रिमंडल में भी ब्राम्हणों का अच्छा खासा प्रतिनिधित्व रहा। मथुरा प्रसाद दुबे,रामेश्वर शर्मा, रामगोपाल तिवारी,राजेन्द्र प्रसाद शुक्ला,किशोरीलाल शुक्ला,शारदाचरण तिवारी, मनहरणलाल पांडे, श्रीधर मिश्र,पवन दीवान,वीरेन्द्र पांडे,डा. कन्हैया लाल शर्मा,प्रेमप्रकाश पांडे, रविन्द्र चौबे,सत्यनारायण शर्मा,अमितेष शुक्ल, विधान मिश्रा आदि म.प्र. से छत्तीसगढ़ राज्य में मंत्रि मंडल में शामिल रहे।छग की राजनीति में पं. रवि शंकर शुक्ल,श्यामा चरण शुक्ल,विद्याचरण शुक्ल, मोतीलाल वोरा,द्वारिका प्रसाद मिश्र (कसडोल से उपचुनाव विजयी होकर) मुख्यमंत्री बने तो मथुरा प्रसाद दुबे को लगातार 7 बार विधानसभा चुनाव में विजयी होने पर विधान पुरूष का दर्जा मिला। कई सालों तक मंत्रिमंडल के सदस्य रहे मथुरा प्रसाद दुबे,श्रीधर मिश्र के साथ ही राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल मंत्रिमंडल के सदस्य रहने के साथअविभाजित म.प्र. से छग में विधानसभा अध्यक्ष रहे,छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद ब्राम्हण समाज से ही प्रेमप्रकाश पांडे विधानसभा अध्यक्ष रहे तो बद्रीधर दीवान ने विस उपाध्यक्ष का पदभार सम्हाला।वही रविन्द्र चौबे भी मंत्रिमंडल में मंत्री रहे तो वर्तमान में छग मंत्रीमंडल में शामिल हैं। वैसे वे छग में विपक्ष के नेता भी रह चुके हैं।वहीं डा. रमनसिंह के मंत्रिमंडल में आखरी पारी में तो एक भी ब्राम्हण को स्थान नहीं दिया गया है। वैसे एक बात तो तय है कभी राजनीति सहित अन्य क्षेत्रों में सक्रिय ब्राम्हण समुदाय उपेक्षा आजकल तेजी पर है। अन्य समाज या जातिवर्ग के लोग तो सक्रिय,एकजुट होकर अपना अधिकार मांगने प्रयत्नशील है पर ब्राम्हण समाज में एकजुटता की कमी परिलक्षित हो रही है।किशोरी लाल शुक्ला, शारदाचरण तिवारी,डा. कन्हैया लाल शर्मा अभी भी अपने कार्यों के कारण पहचाने जाते थे। तो सहकारिता के क्षेत्र में रामगोपाल तिवारी, सत्यनारायण शर्मा, राधेश्याम शर्मा आदि का भी अपना स्थान रहा। जहां तक छत्तीसगढ़ राज्य बनने के पहले अविभाजित म.प्र. की बात करें तो पूर्व विधानसभा अध्यक्ष यज्ञदत्त शर्मा,कुंजीलाल दुबे काशी प्रसादपांडे,श्रीनिवास तिवारी का अपना स्थान रहा है। वही म.प्र. में सत्यव्रत चतुर्वेदी, सुरेश पचौरी,कैलाजोशी,नरोत्तम मिश्रा,अनूप मिश्रा,राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल और गोपाल भार्गव जैसे ब्राम्हण नेता सक्रिय है। म.प्र. की राजनीति में पूर्व मंत्री स्व. ओंकार तिवारी (जबलपुर) का भी महत्वपूर्ण स्थान रहा है। पिछले चुनाव में भी कांग्रेस से सत्यनारायण शर्मा,अमितेशशुक्ला,अरुण वोरा,शैलेष पांडे आदि चुने गए थे पर इन्हें मंत्रीमंडल में शामिल नही किया गया था।

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