दरख़्तों से ताल्लुक का हुनर सीख ले इंसान… जड़ों में ज़ख्म लगते हैं, टहनियाँ सूख जाती हैं…

शंकर पांडे ( वरिष्ठ पत्रकार )      

भारत की राजनीति में आखिर हो क्या रहा है….हमारे पुरखों को अब उनके नहीं रहने के बाद आपस में लड़ाया जा रहा है, मतभेद उभारा जा रहा है, यही नहीं पुरखों की उपेक्षा करके दलगत राजनीति का दौर जारी है। स्वयं को अच्छा सिद्ध करने दूसरों को नीचा दिखाने का प्रयास हो रहा है। धर्म, जाति, वर्ग के आधार पर पुरखों को बांटा जा रहा है।आजादी के बाद जब भारत का संविधान करीब-करीब तैयार था मूल प्रति पर हस्ताक्षर होना ही बचा था तब उसके प्रकाशन के साथ साज-सज्जा के लिए चित्रकार नंदलाल बोस को शांति निकेतन से बुलवाकर चित्रांकन का अनुरोध किया गया।
चित्रकार ने संविधान के प्रमुख पन्नों पर सजावट करते हुए रामायण का चित्र बना दिया, गौतम बुद्ध, महात्मा गांधी तथा सुभाष चद्र बोस के चित्र रूपांकित किये। भारत का संविधान, धर्म निरपेक्षता की गारंटी वाला महाकानून और नीति निर्धारक सिद्धांतों के अनिवार्य पालन का महान ग्रंथ था और रामायण के प्रसंगों का चित्रण….। उसे नेहरू ने देखा, डॉ. भीमराव अंबेडकर ने देखा और हिंदु-मुसलमान सभी सदस्यों ने हस्ताक्षर किये। दरअसल रामायण को भारतीय साहित्य तथा संस्कृति का अंग माना जाता था। यह है नेहरू तथा डॉ. अंबेडकर की धर्मनिरपेक्षता…. यदि नेहरू, सुभाष चंद्र बोस के खिलाफ होते तो उनका चित्र संविधान की पहली प्रति में स्थान कैसे पाता….? आजादी के बाद तो पंडित नेहरू सबसे चमकदार लोकप्रिय नेता थे। अंबेडकर यदि गांधीजी के प्रति कटु होते तो क्या यह संभव था कि वे संविधान की मूलप्रति में हस्ताक्षर करते जिसमें गांधी का चित्र था….दरअसल उस समय के लोग संघर्ष में तपे थे, बलिदान तपस्या के वातावरण में निर्मित हुए थे, असहमति का आदर चरित्र में बसा था। दरअसल कुछ सालों के भीतर पद, पुरखों और राष्ट्र की ऊंचाई तक उठने की भावना का ह्रास हुआ है। केवल पुरखों को गरियाने या उनके मतभेद हो हवा देना ही कुछ लोगों ने अपना नैतिक कत्वर्य समझ लिया है….?

इंदिरा, जगजीवन राम की फोटो से छेड़छाड़…     

1971 में पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध में भारत की जीत के 50 साल पूरा होने पर अक्टूबर 2021 में भारतीय वायुसेना ने ‘स्वर्णिम विजय वर्ष सम्मेलन’ आयोजित किया था. बेंगलुरु में आयोजित इस सम्मेलन में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, एयर चीफ मार्शल विवेक राम चौधरी और तत्कालीन सी डी एस जनरल बिपिन रावत भी शामिल हुए थे. इसी सम्मेलन में आधिकारिक तौर पर 1971 का ‘वॉर ब्रोचर’ रिलीज किया गया था. अब इस ब्रोचर में शामिल किए गए कुछ फोटोज के साथ छेड़छाड़ के आरोप को लेकर मोदी सरकार पर सवाल उठाए जा रहे हैं…..?
1971 के युद्ध की ऐतिहासिक तस्वीरों से पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और पूर्व रक्षा मंत्री बाबू जगजीवन राम को काटकर इतिहास को मिटाने का एक शर्मनाक प्रयास किया गया है ये दुर्भाग्यपूर्ण है कि अगर देश की रक्षा ताकतें भी इस तरह की कोशिशों का हिस्सा बनती हैं, जो केवल सत्ताधारी पार्टी की असुरक्षा को दिखाती हों…..!

बुझ गई ‘अमर’ ज्योति…     

दिल्‍ली की सबसे मशहूर जगहों में से एक, इंडिया गेट के आसपास सेंट्रल विस्‍टा प्रॉजेक्‍ट के तहत काफी काम चल रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 23जनवरी को इंडिया गेट पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस की होलोग्राम प्रतिमा स्थापना की है । यह प्रतिमा इंडिया गेट के सामने स्थित कैनोपी (छतरीनुमा ढांचा) के नीचे लगाई गईं है यहाँ बाद में काले ग्रेनाइट की भव्य प्रतिमा लगाई जाएगी । इस कैनोपी के नीचे 1960 के दशक तक सम्राट जॉर्ज पंचम की प्रतिमा हुआ करती थी।इंडिया गेट से करीब 150 मीटर दूर पूर्व में एक कैनोपी है। साल 1936 में इसका निर्माण जॉर्ज पंचम के सम्मान में किया गया था। वह उस समय भारत के सम्राट हुआ करते थे। कैनोपी के नीचे उन्‍हीं की प्रतिमा हुआ करती थी। 1960 के दशक में भारत ने अंग्रेजों की यादें हटाकर भारत के राष्‍ट्रवादी नेताओं को श्रद्धांजलि देने का कार्यक्रम चलाया। इस दौरान, जॉर्ज पंचम की प्रतिमा को हटाकर कोरोनेशन पार्क में लगा दिया गया। ब्रिटिश हुकूमत की कई यादें कोरोनेशन पार्क में मौजूद हैं। तब से यह छतरी खाली पड़ी हुई थी, एक तरह से भारत से अंग्रेजों के वापस लौटने के प्रतीक के रूप में……!
बाद में पाकिस्तान पर 1971 के युद्ध की जीत व बांग्लादेश की आजादी के बाद तत्कालीन तथा भारत की पहली महिला पीएम इंदिरा गांधी ने शहीदों की याद में 1972 के गणतंत्र दिवस पर इंडिया गेट पर अमर जवान ज्योति प्रज्जवलित की थी । जबकि इंडिया गेट को ब्रिटिश भारत की ओर से लड़ते हुए शहीद हुए 90 हजार भारतीय सैनिकों की याद में अंग्रेजों ने 1931 में बनाया।
भारत ने परोक्ष रूप से चार घोषित युद्ध लड़े हैं। नेहरू,शास्त्री ,इंदिरा और अटल के समय एक -एक युद्ध हुआ। चारों युद्ध हम पर थोपे गए और इन चारों युद्ध में हजारों सैनिक शहीद हुए…1962, 1965,1971 और 1999 वाले चार युद्धों में सबसे ज़्यादा निर्णायक 1971 का रहा जिसने भारत के सबसे बड़े दुश्मन पाकिस्तान का भूगोल बदल दिया। बांग्लादेश के रूप में नये देश का उदय हुआ…
इस जीत के बाद, इंदिरागांधी विश्व पटल पर मजबूत नेता के तौर पर उभरीं और दुश्मन देश शर्मनाक हार से कई दशकों तक उभर नहीं सका। 50 साल पहले हुए युद्ध ने भारत का लोहा मनवाया और देश की सेना काआत्मविश्वास बढ़ा।अमेरिका की सातवें बेड़े की धमकियां भी विफल हुई और चीनी स्वर भी खामोश रहे….।
दिल्ली के दिल, इंडिया गेट पर अमर ज्योति जलाई गई जो 21जनवरी 22 की शाम तक निरंतर जलती आ रही थी। बचपन से आज तक दसियों बार उस ज्योति को भारत के करोड़ों लोगों ने देखा.. दरअसल वहाँ जाने से भारत के गौरवशाली इतिहास की अनुभूति तो होती थी साथ ही भारत की सेना और शहीदों के बलिदान से नतमस्तक होने की भावना निश्चित ही होती थी बड़े बूढ़े बच्चों को भारत के सैनिकों के गौरव से परिचित करवाते थे ।
मौजूदा सरकार ने तानाशाही और स्वयंभू निर्णयों की भांति अमर ज्योत बुझाने का फैसला भी बगैर किसी चर्चा के ले लिया….इस पर बेख़ौफ़ चर्चा होती तो मौजूदा सरकार के कई मंत्री भी इसका विरोध करते….?हमेशा की तरह, इस उटपटांग, 1971 के शहीद सैनिकों के असम्मान के इस निर्णय पर तर्क दिया जा रहा है कि यह मर्जर है युद्ध स्मारक की ज्योति में…..साहब….,मर्जर अमलगमेन, टेक ओवर कॉरपोरेट में होता है…, राष्ट्रीय स्मारकों में नहीं….। तर्क ये भी दिया जा रहा है कि, इंडिया गेट, अंग्रेज़ो ने बनवाया था और उस पर लिखे नाम उन फौजियों के हैं…जो, पहले विश्व युद्ध में ,अंग्रेजों की और से लड़ते हुए मारे गए थे।
तो साहब, आप इंडिया गेट गिरा देते… जो ज्योति बुझाने से बेहतर विकल्प था….! 26 जनवरी को लाल किले से तिरंगा लहराने की परम्परा है… लाल किला भी तो आजाद भारत में नहीं बना है… राष्ट्रपति भवन भी तो अंग्रेजों के समय बना है.सुभाष बाबू की प्रतिमा भी तो अंग्रेजों के समय की छतरी के नीचे ही लगी है, लगाई जाना प्रस्तावित है ……?खैर साहब आपने युद्ध स्मारक बनाया.. उसके लिए साधुवाद.. पर यदि अमर जवान ज्योति भी जलती रहती तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ता…? वैसे यदि इसके जलने से आने वाले खर्च की बात है…(कुछ भाजपाईयों का यह भी तर्क है) तो पेट्रोल -डीजल पर इसके नाम पर टेक्स और बढ़ा देते तो देशवासी सहर्ष तैयार हो जाते…?कुल मिलाकर यह सनक है।आम भारतीयों की भावनाओं को आपने आहत तो किया ही है…..!

और अब बस….

026 जनवरी 1950 को रायपुर तब तत्कालीन सेंट्रल प्राविंस (सीपी एंड बरार) का हिस्सा था। इसकी राजधानी नागपुर थी। इसलिए प्रदेश का पहला गणतंत्र दिवस समारोह नागपुर में ही हुआ। इसमें मध्यप्रदेश के पहले मुख्यमंत्री पं. रविशंकर शुक्ल ने पहली परेड की सलामी ली।
0 26 जनवरी 1950 को देश में संविधान लागू हुआ, उसी दशक में तकरीबन दो साल बाद रायपुर के पंडित रविशंकर विश्वविद्यालय (रविवि) को इस पहले प्रकाशन की तीन कॉपियां उपहार के तौर पर भेजी गईं। इसे संविधान की मूल प्रति इसलिए माना जाता है क्योंकि यह वही प्रकाशित दस्तावेज है
संविधान की मूल प्रति पर जिनके हस्ताक्षर हैं।
0 छत्तीसगढ़ अंचल के रियासतों से किशोरी मोहन त्रिपाठी,रामप्रसाद पोटाई एवं मध्यप्रांत सीपी बरार (छत्तीसगढ़) के प्रतिनिधियों में रायपुर से पंडित रविशंकर शुक्ल, बिलासपुर से बैरिस्टर ठाकुर छेदीलाल और दुर्ग के घनश्याम सिंह गुप्ता ने सभा के सदस्य के तौर पर बेहद अहम भूमिका निभाई।
0 दुर्ग अंचल के घनश्याम सिंह गुप्ता ने संविधान सभा के सदस्य के तौर पर संविधान की हिंदी शब्दावली पर अहम योगदान दिया था।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *