{किश्त 194 }
भारत के सेनाध्यक्ष का पद हथियाने,फिर उससे चिपके रहने के लिए कुछ फ़ौजी अफसर क्या क्या हथकंडे नहीं अपनाते! सेवानिवृत्त होकर बाद में केन्द्र में मंत्री बने जनरल का उदाहरण हाल का है। उन पर आरोप लगे कि सेवाकाल के दौरान सर्विस रिकाॅर्ड में हेराफेरी की थी ताकि सेवानिवृति को अधिक से अधिक टाला जा सके, वे अधिकाधिक समय सेनाध्यक्ष के पद पर टिके रह सकें। उनके इस कृत्य से जुड़ी अनैतिकता विमर्श का बड़ा मुद्दा नहीं बनी। अभी कुछ दशकों पहले तक दूसरों की तरह फ़ौजियों के व्यक्तिगत आच रण, प्रोफेशनल जीवन में मूल्यों का बड़ा महत्व था। आदमी जितना ऊपर जाता था, नैतिकता की अपेक्षाएं उतनी ही बढ़ जाती थीं। अधिकांश मौकों पर निराश नहीं करते थे। कुछ लोग तो अनूठेअनुकरणीय उदाहरण पीछे छोड़ जाते थे। कम लोगों को ही पता होगा कि भारत के एक सेनाध्यक्ष की बिटिया छत्तीसगढ़ के खैरा गढ़ राजपरिवार की बहुबनी थी, वे राजनीति में सक्रिय रहीं, उनका बेटा भी सांसद, विधायक बनता रहा।भारत जब आज़ाद हुआ था तब फ़ौजों में शीर्ष नेतृत्व में अचानक आये खालीपन ने देश के सामने एक बहुत बड़ी समस्या खड़ी कर दी थी। जब तक अंग्रेज़ थे, भारतीय अधिकारियों को फ़ौज में नेतृत्व करने का मौका नहीं दिया था।1857 के अनुभव के बाद अंग्रेज़ों की यह नीति स्वाभाविक थी।कर्नल केएम करियप्पा पहले हिन्दुस्तानी थे जो19 45 में ब्रिगेडियर के पदतक पहुंचे थे।उन दिनों कर्नल (बाद में पाकिस्तान के फील्ड मार्शल) अयूब खान, करियप्पा के मातहत थे। विभाजन के बाद के सालों में भारत-पाकिस्तान दोनों फ़ौजों के कमांडर अंग्रेज़ थे 1947-48 में जब कश्मीर में पाकिस्तान के साथ पहला युद्ध हुआ तब भी…। 1949 में अंग्रेज़ जनरल बुचर की भारत से बिदाई का समय नज़दीक आया तो भारत सेना के मुखिया की नियुक्ति को लेकर हल चल तेज हुई। पहली बार एक भारतीय इस पद पर नियुक्त होने जा रहा था। देश के नव-निर्माण की प्रक्रिया में यह भी एक अत्यंत महत्वपूर्ण अवसर था। बहस का एक विषय यह भी था कि सेनाध्यक्ष के चयन का आधार क्या हो? वरिष्ठता या काबिलीयत..? या दोनों…? 3 वरिष्ठतम अधिकारियों की शॉर्टलिस्ट बनाकर मंथन शुरू हुआ। पहले 1947 में हिन्दुस्तानी सेना के 3 ब्रिगेडियरों को मेजर जनरल के पद पर पदोन्नत कर शीर्ष नेतृत्व की ट्रेनिंग के लिए इंग्लैंड भेजा गया था।इनमें से एक पाकि स्तान के हिस्से के थे। बचे दो भारतीयों में एक जनरल करियप्पा, दूसरे थे जनरल महाराज कुमार राजेंद्र सिंह, शॉर्टलिस्ट में 2भारतीयों के अलावा एक जनरल नाथू सिंह भी थे। लेकिन काफी जूनियर होने, इंग्लैंड की ट्रेनिंग से वंचित रहने के कारण जनरल नाथूसिंहएक तरह से रेस से बाहर ही थे। चयन पहले दो में से हीहोना था। मेजर जनरल बनने की तिथि के आधार पर दोनों जनरल बराबरी पर थे। पी एम जवाहरलाल नेहरू ने अनेक लोगों से इस विषय पर राय मशविरा किया,रक्षा मंत्री सरदार बलदेव सिंह, जनरल करियप्पा के पक्ष में बिलकुल नहीं थे। पलड़ा जनरल राजेंद्र सिंह की ओर झुक गया। नियुक्ति से पहले नेहरूजी ने जनरल राजेंद्र सिंह से राय पूछी। जनरल राजेंद्र सिंह ने बिना पलक झपके अपनी राय दे दी- “काबिलीयत बराबर हो सकती है किन्तु जनरल करियप्पा उम्र में मुझसे कुछ माह वरिष्ठ हैं, यह अवसर पहले उन्हें ही दिया जाना चाहिए ” और 15 जनवरी 1949 को जनरल करियप्पा भारतीय फ़ौज के पहले ” कमान्डर-इन-चीफ ” बने। तब से यह दिन हर साल”आर्मी-दिवस” के रूप में मनाया जाता है। तभी से वरिष्ठता को वरीयता देने की परम्परा आज तक चल रही है। उस स्तर पर काबि लीयत तो कमोबेश उन्नीस- बीस ही रहती है। सेनाध्यक्ष बनने का ऑफर पर अवसर अपनी जगह दूसरे को देने वाले जनरल राजेंद्र सिंह सौराष्ट्र (गुजरात) के नवा नगर (वर्तमान जामनगर) राजघराने के थे। उसी राज घराने से महाराज रणजीत सिंह,भतीजे दलीपसिंह क्रिकेट के मशहूर खिलाड़ी हुए थे। उनके नाम पर ही रणजी ट्राॅफी, लीप ट्राॅफी मैच खेले जाते हैं। जनरल महाराज राजेंद्रसिंह की छोटी बेटी रश्मिदेवी सिंह का विवाह खैरागढ़ के राज परिवार में हुआ तथा आगे चलकर वे रानी बनीं। रश्मि देवी के बेटे थे देवव्रतसिंह।जनरल राजेंद्रसिंह,भारतीय सेना के दूसरे सेनाध्यक्ष बने किन्तु इस बार भी वे एक अनूठा उदाहरण पीछे छोड़ गये। भारत के अब तक के सेनाध्यक्षों में वे अकेले रहे हैं जिन्होंने नियत तारीख से पहले ही स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ले ली थी । इसके पीछे का कारण बहुत कुछ बताता है, तब लोगों के जीवन मूल्यों के बारे में… सेना में सेनाध्यक्ष के लिए नियत सेवाकाल अन्य जन रलों कीअपेक्षा अधिकहोता है।जनरल राजेंद्रसिंह, जब सेनाध्यक्ष थे तब सेना में उनके बाद वरिष्ठतम अधि कारी थे जनरल नागेश(जन रल नाथूसिंह रिटायर हो चुके थे)। जब तक जनरल राजेंद्रसिंहअपना कार्यकाल पूरा करते,जनरल नागेश रिटायर हो चुके होते,ऐसा हो पाता इससे पहले जन रल राजेंद्रसिंह ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली ताकि पुराने मित्र,साथी जनरल नागेश, भारतीय फ़ौज के तीसरे अध्यक्ष बनने का मार्ग प्रशस्त हो सके। स्व. देवव्रत सिंह जी के दादा राजा वीरेन्द्र बहादुर सिंह, दादी रानी पद्मा वती भी इतिहास बनाने में पीछे नहीं थे। नवम्बर 1956 में मध्य प्रदेश में जब मंत्रिमंडल का गठन हुआ तो देवव्रत के दादा और दादी दोनों उसमें मंत्री के रूप में शामिल किये गये। इस बात पर यदि “परिवारवाद” शब्द याद आये तो “महिला सशक्ति करण” को भी याद करना उचित होगा। मंत्रिमंडल में रानी पद्मावती केबिनेट मंत्री थीं तो राजा वीरेन्द्र बहादुर सिंह राज्य मंत्री… मंत्रि मंडल के उस वक़्त के ग्रुप फोटो में रानी पद्मावती सामने कुर्सी पर बैठी, राजा साहब गर्वीली मुस्कान के साथ कतार में खड़े नज़र आते हैं। उसी वर्ष,1956 में इन्होने अपनी दिवंगत बेटी इन्दिरा देवी की स्मृति में संगीत, नृत्य एवं कला के लिये एक विश्व विद्यालय स्थापित किया। इंदिरा कला,संगीत विश्वविद्यालय अपने किस्म का एशिया का प्रथम संस्थान है। संचालन के लिये देवव्रत सिंह के दादा-दादी ने अपना महल दान कर दिया था। खैरागढ शब्द देश में संगीत शिक्षा का पर्यायवाची बन चुका है परम्परा जारी रही। देवव्रत के पिता राजा रवेन्द्र बहादुर सिंह कभी चुनाव नहीं लड़ा किन्तु मां रानी रश्मि देवी सिंह चार बार विधायक बनीँ । देवव्रत का दुखद निधन असामयिक था। वे अपने अल्पजीवन में एक बेहद लोकप्रिय सामाजिक, राजनीतिक शख्सियत के रूप में स्थापित हो चुके थे। वे एक बार लोकसभा तथा अनेक बार विधानसभा के सदस्य निर्वाचित हुए थे। छत्तीसगढ बनने के बाद पहले युवा कांग्रेस अध्यक्ष रहे थे।
बड़े लाट और जंगी
लाट की कोठी….
अंग्रेज़ों के समय से हीफ़ौज के मुखिया को कमान्डर- इन-चीफ कहा जाता था। तब तक वायु सेना और नौसेना का अलग अस्तित्व विकसित नहीं हुआ था। दिल्ली में इनके निवास को आम भारतीय “जंगी लाट की कोठी” के नाम से जानता था। यही भवन आज़ादी के बाद तीन मूर्ति भवन के नाम पीएम का आवास बना। राष्ट्रपति भवन “बड़े लाट की कोठी” थी।अंग्रेजी के “लाॅर्ड” के अपभ्रंश को ‘लाट-साहब बना कर हमने अपनालिया।जनरल करियप्पा, परम्परा में कमान्डर-इन -चीफ बने थे। दूसरे सेना ध्यक्ष जनरल राजेंद्र सिंह की सेनाध्यक्ष के रूप में नियुक्ति के साथ पदनाम में परिवर्तन हुआ, भारत के प्रथम चीफ-ऑफ -आर्मी-स्टाफ बने। तभी से पदनाम आज तक जारी है।(डॉ. परिवेश मिश्रा,सारंगढ़ से मिली जानकारी के आधार पर)