{किश्त136}
12 सितम्बर सन् 1778 की सुबह.. सारंगढ़ में तब राजा विश्वनाथ सिंह काराज था।रापरिवार बादल महल में निवास करता था। उस महल के अब अवशेष बचे हैं जो बाद में गिरिविलास महल के परिसर में हैं।छ्ग राजपरिवार के दामाद तथा स्वतंत्र लेखक परिवेश मिश्र के अनुसार तब सारंगढ़कम आबादी की छोटी बस्ती थी। जितनी थी मिट्टी,चूने और पत्थरों की दीवारों से बने “गढ़” के भीतर ही थी। आबादी में राजगोंड,गोंड के अलावा बिंझवार,भैना गांड़ा परिवारों के साथ राऊत (यादव/रावत)परिवारप्रमुख थे,राज्य की सैन्यशक्ति का महत्व पूर्ण हिस्सा थे।कुछ मुस्लिम परिवार थे,चूड़ियों, मनिहारी का व्यवसायकरते थे। इनके खरीददार गिने- चुने रजवाड़ों में ही थे,आस पास के इलाके में आना- जाना करते रहते थे। किले के चारों ओर सुरक्षात्मकघेरे में बहनेवाला नाला हमेशा की तरह पूरा भरा था।आम तौर पर शांत रहने वाली “गढ़ी” में हर व्यक्ति उस सुबह घर के बाहर था,सभी की कौतूहल भरी निगाहें किले के दरवाजे पर थीं। सारंगढ़ में पहली बार एक अंग्रेज़ दिखायी दिया था। उससे पहले किसी अंग्रेज़ के छग पहुंचने के दर्ज़ इति हास की जानकारी नहीं है…? घूल-घूसरित फौजी वर्दी में घोड़े पर सवार ईस्ट इंडिया कम्पनी का अधि कारी किले में प्रवेश की अनुमति की प्रतीक्षा में खड़ा था, नाम था रॉर्बट फ़ार्क्वार। माह भर पहले कलकत्ता से कम्पनी के कुछ सैनिक नुमा अफसर ‘गवर्नर जनरलऑफ बंगाल’ वॉरेन हेस्टिंग्स का राजा साहब के नाम लिखा एक पत्र लाये थे। हेस्टिंग्स ने लिखा था कि अफसरों का एक दल,‘ऐम्बेसी’ के रूप में संबोधित किया गया था, मराठा राजा रधुजी भोंसलें से मिलने नागपुर जाने के लिए कलकत्ता से रवाना होने वाला है। हेस्टिंग्स ने पत्र में पूर्व-सूचना देते हुए दल के सारंगढ़ राजा से भेंट करते हुए राज्य से गुजरने की अनुमति मांगी थी।राजा साहब ने अनुमति प्रदानकर दी थी। किन्तु उस दिनराजा विश्वनाथसिंह को एलेक्जें डर ईलियट की प्रतीक्षा थी! हेस्टिंग्स ने जो पत्र भेजा था उसमें दल के मुखिया का यही नाम बताया गया था। रॉर्बट फ़ार्क्वार से पता चला कि ईलिएट की उसी सुबह मृत्यु हो गयी थी, प्रकिया के तहत दूसरे नम्बर के अधि कारी फ़ार्क्वार ने एम्बैसी की कमान सम्भाल ली थी। उस समय रॉबर्ट फ़ार्क्वार
इस बात से अनभिज्ञ थे कि उनकी किस्मत में भी छत्ती सगढ में ही दफ़न होना ही लिखा था।’ऐम्बेसी’ के सारं गढ़ राज्य कीसीमा में प्रवेश खबरियों ने राजा साहब को 6 सितम्बर को दे दी थी यह भी बताया था कि अंग्रेजों के दल का मुखिया,अन्य लोग बुखार से ग्रस्त हैं,उन्हे कुछ दिनों के लिए पड़ाव करना होगा। राजा साहब ने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि वे मौके पर पहुंच कर मदद करें। मदद केरूप में पड़ाव के लिए उपयुक्त स्थान का चयन सबसे महत्वपूर्ण था।सारंगढ़ से सरायपाली का मार्गआज के गुमर्डा अभ्यारण्य को चीरता हुआ निकलता है। इस मार्ग में सारंगढ़ से 12 किमी की दूरी पर सालर गांव है। घने वन क्षेत्र का पानी समेट कर लात नदी इस गांव के किनारे से महा नदी की ओर आगे बढ़ती है। सन् 1778 के सितम्बर माह के प्रारम्भ में इस नदी में बहुत पानी था। वन उन दिनों बहुत घने थे, हिंसक, अन्य वन्य प्राणियों से भरे पूरे थे। नदी के तट पर सालर के उस पार सेमरा गांव भी अस्तित्व में आ चुका था। इन दोनों गांवों के बीच नदी टापू है। ईलियट के दल के पड़ाव के लिये इसी स्थल को सुरक्षित भी माना। किन्तु पांच दिन के तेज बुखार के बाद दल के मुखिया एलेक्जेंडर ईलियट का निधन हो गया। मृत्यु के समय ईलियट की उम्र थी मात्र 23 वर्ष,वॉरेन हेस्टिंग्स के अलावा चंद मुट्ठी भर लोग ही थे जिन्हे एम्बैसी के महत्व, सारंगढ़राज तक पहुंचनेअंतर्राष्ट्रीय कारणों की जानकारी थी।ईस्ट इंडिया ने 1772 में कल कत्ता में वॉरेन हेस्टिंग्स को नियुक्त कर दिया था।बम्बई (मुम्बई), मद्रास (चेन्नई) में भी गवर्नरों ने काम संभाल लिया था। किन्तु अंग्रेज़ों के तीनों मुख्यालयों के बीच सम्पर्क नही था। श्रीलंका का चक्कर लगाकर समुद्र से पंहुचने का विकल्प नही था। पदभार सम्भालने के बाद बम्बई-कलकत्ता को जोड़नेवाला सुरक्षित गलि यारा प्राप्त करना हेस्टिंग्स की सर्वोच्च प्राथमिकता थी। (यह वही गलियारा था जिस पर आगे कलकत्ता- बम्बई के बीच”ग्रेट ईस्टर्न रोड”बनी और बम्बई- हावड़ा रेल लाईन का निर्माण हुआ) हेस्टिंग्स का दौर शुरू होते तक कल कत्ता और बम्बई के बीच के भारत के पूरे भूभाग पर मराठे हावी हो चुके थे। इधर अंतर्राष्ट्रीय घटना ने गलियारा प्राप्त करने के लिए हेस्टिंग्स पर ब्रिटिश आकाओं का दबाव भी अचानक ही बहुत बढ़ा दिया। अमेरिका तब तक ब्रिटेन के अधीन था। सन 1775 में वहां के लोगों ने अंग्रेज़ों के विरुद्ध बड़ा युद्ध शुरू कर दिया था जिसे इतिहास में “अमेरिकन वाॅर ऑफ इंडिपेन्डेन्स” के नाम से याद किया जाता है। एक तरफ ब्रिटेन था तो दूसरी ओर उसके 13 उपनिवेश जिन्होने अपने आपको ब्रिटेन से स्वतंत्र घोषित कर संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की स्थापना की घोषणा की । कलकत्ता में बैठे अंग्रेज़ों के लिए दूर अमेरिका में चलने वाला युद्ध इसलिए डराने वाला था क्योंकि उस युद्ध में अंग्रेज़ों के विरोधियों को मदद कर रहा था फ्रांस..! और फ्रांस की अच्छी खासी मौजूदगी, प्रभाव भारत में भी था।ईस्ट इंडिया कम्पनी की जड़ें तब तक भारत में मजबूत नहीं हो पायी थीं।अमेरिका की तरह यदि फ्रांस भारत में भी ब्रिटेन विरोधियों को मदद देकर प्रभावी प्रतिरोध खड़ा करने में सफल हो जाता तो अंग्रेज़ों का यहां टिकना मुश्किल था। इस संभावना ने अंग्रेज़ों की नींद उड़ा दी। दक्षिण में टीपू सुल्तान उत्तर में सिंधिया,फ्रांसीसियों के करीब आ चुके थे।अब तो गलियारा प्राप्त करने के साथ साथ हेस्टिंग्स के लिए जरुरी हो गया था कि वह फ्रांस से मिलने वाली संभा वित चुनौती का सामना करने के लिए मध्य-भाग में प्रभावी नागपुर के भोंसले जैसे मराठों के साथ संधि की संभावना तलाशे….. भोंसले के पास फ्रांसीसी पहुंचे उससे पहले हेस्टिंग्स को उनके पास पहुंचना था। यही वो लक्ष्य था जिसे प्राप्त करने हेस्टिंग्स ने इंगलैन्ड में सबसे योग्य एलेक्जेंडर ईलियट को कलकत्ता बुलाया था। इंग लैन्ड से भारत आने के बाद ईलियट को हेस्टिंग्स के सेक्रेटरी के पद का आवरण दे कर एक माह की कठोर ट्रेनिंग दी गयी थी, मिशन के लिए तैयार किया गया था। वाॅरेन हेस्टिंग्स ने हर कारों के हाथों भेजी जाने वाली डाक की व्यवस्था को आम जनता के लिए खोल दिया था (इसीलिए हेस्टिंग्स को भारतीय डाक सेवा या ‘इंडिया- पोस्ट’ का जनक भी कहा जाता है)। ईलियट की ‘एम्बैसी’का सार्वजनिक़ रूप से घोषित लक्ष्य ही अंग्रेज़ों के लिए इसी मक सद से गलियारा प्राप्त करना था “पोस्टल काॅरी डोर”।ईलियट की ‘एम्बैसी’ को 20 जुलाई 1778 को 400 भारतीय घुड़सवार सैनिकों के साथ कलकत्ता से रवाना किया गया था। दल में ईलियट के सहायक के रूप में राॅबर्ट फार्क़्वार, सैनिकों की टुकड़ी के मुखिया के रूप में केप्टन विलियम कैम्पबेल,जेम्स एन्डरसन समेत कुल पांच अंग्रेज़ अफसर थे।मूसला धार वर्षा में यह दल कटक और वहां से सोनपुर होते हुए महानदी के किनारे- किनारे आगे बढ़़ा। मौसम की मार, यात्रा की थकान ने दल के सभी सदस्यों के हाल बुरे कर दिये थे,रास्ते में ईलियट की तबियत बिगड़ने की सूचना हेस्टिंग्स तक पहुंचा दी गयी थी और वहां से वैकल्पिक व्यवस्था के आदेश भी आ चुके थे। इन्ही आदेशों के परिपालन की कड़ी में एम्बैसी के नए मुखिया राॅबर्ट फ़ार्क्वार सारं गढ़ राजा से मिलने पहुंचे थे। अपने साथी एलेक्ज़ेंडर ईलियट के मृत शरीर को सैनिकों की सुपुर्दगी में छोड़ कर वे राजा विश्वनाथसिंह के पास उसे राज्य की सीमा में दफ़नाने की अनुमति लेने आये थे। राजा साहब नेउन्हें अनुमति दी, सारंगढ़ राज्य में कदम रखनेवाला पहला अंग्रेज सदा के लिये यहां का हो गया।ईलियट की मृत्यु के बाद वाॅरेन हेस्टिंग्स का दल सारंगढ़ पहुँचा। इसमें हेस्टिंग्स की ओर से धन्यवाद ज्ञापन के रूप में राजा साहब को एक हाथी ख़िलअत के साथ भेंट दीं। जिस जगह ईलियटको दफ़ नाया गया था वहां हेस्टिंग्स के लोगों ने स्थानीय कारी गरों की सहायता से एक कब्रगाह का निर्माण किया। ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अपने किसी मुलाजिम के लिए भारत में निर्मित की गयी यह पहली कब्रगाह थी, हेस्टिंग्स ने एलेक्ज़ेंडर ईलियट के बारे में विस्तृत समाधि लेख के साथ एक तराशा हुआ बड़ा पत्थर भी भेजा था,जिसे कब्रगाह की दीवार में स्थापित कियागया स्थानीय लोगों ने कब्र के उपर हुए निर्माण को देखा और उसे ‘अंग्रेज का मंदिर’ नाम दे दिया। इस नाम का प्रभाव यह हुआ कि सवा 200 वर्ष से अधिक समय बीत गया पर कब्रगाह सला मत है। एक कारण यह भी रहा कि 1947 तक अंग्रेज सरकार इस मकबरे कीदेख रेख के लिए आर्थिक सहा यता भी भेजती रही। सारं गढ़ आने वाले सभी महत्व पूर्ण अंग्रेज़ों ने यहां पहुंच कर फूल चढ़ाये थे।नियुक्ति अवधि पूरी होने पर वापस इंगलैंड वापस जाते समय वाॅरेन हेस्टिंग्स ने जहाज में लिखी अपनी डायरी में एलेक्ज़ेंडर ईलियट,उसके मिशन के बारे में विस्तार से लिखा। एक बेहद प्रतिभा शाली युवा की इतनी कम उम्र में मृत्यु हो जाने केलिए वे अपने आप को दोषी भी मानते रहे..!