प्रथम विश्व युद्ध,बस्तर में ट्राम रेलसेवा,द्वितीय युद्ध में बंद कर पटरियां बगदाद भेजी गई

(किश्त 80)

अंग्रेजों ने प्रथम विश्वयुद्ध के समय बस्तर में देश की पहली फारेस्ट ट्रामसेवा की आधार शिला रखी थी।नेरो गेज की रेललाइन धमतरी के कुरूद से मेघा,दुगली पेंड्रासाकरा,नगरी फरसिया, एलाव्ली,बोरई से लिकमा तक जाती थी।कुरूद से लिकमा तक 147 किलो मीटर कीनेरोगेज लाइन का निर्माण 1917- 18 में पूरा हो चुका था।पर द्वितीयविश्व युद्ध के समय ज़ब अंग्रेजों को तेल की जरूरत पड़ी तो बस्तर की प्राचीन ट्रामसेवा (रेललाईन) की पटरियाँ, लोको और सामान बगदाद भेज दिया।द्वितीय विश्वयुद्ध के समय अंग्रेजों को जब इराक में तेल सुविधा की जरूरत पड़ी तब बस्तर की ट्राम सेवा (रेललाइन) की पटरियों,लोको और अन्य सामान यहां से उखाडक़र इराक की राजधानी बगदाद भेज दी गई।हालांकि उस समय वनवासियों ने ट्राम सेवा बंद नहीं करने की मांग उठाई थी पर 2 मार्च 1942 को ट्राम में कार्यरत कर्मचारियों को अंग्रेज सरकार ने नोटिस भेजकर युद्ध सेवाओं हेतु पटरिया उखाडऩे,ट्रामसेवा को स्थानांतरित करने की जानकारी देकर बकाया भुगतान कर दिया। उस समय राजिम छोटी रेल लाईन भी उखाडऩे की योजना थी पर बाद में यह योजना स्थगित कर दी गई।बहुत कम लोगों को पता है कि प्रथम विश्वयुद्ध केसमय बस्तर आदिवासी अंचल में अंग्रेजी हुकुमत ने देश की पहली ट्राम सेवा की आधार शिला रखी थी।उत्तर बस्तर से होकर पड़ोसी उड़ीसा तक विस्तारित इस ट्राम सेवा को बस्तर आदिवासी ‘जंगल की रेल’ कहते थे।यह ट्राम सेवा लकडिय़ों को लाने के साथ ही वनोपज की ढुलाई के लिए ही शुरू की गई थी पर बाद में उसमें एक डिब्बा यात्री कोच का भी लगाया गया था जिसमें यात्री सफर करते थे।करीब 103 साल पुरानी रेललाईन धमतरी से कुरूद के निकट चरमुडिय़ा नामक स्थान से बस्तर के लिये मुड़ती थी।पहला स्टेशन मेदया था।वहां से ट्रामलाईन दुगली साकरा,नगरी,फरसिया,
एलावली, लिकमा तक जाती थी। दुगली में एक आरा मशीन थी जो भाप से चलती थी। यहीं लकड़ी के स्लीपर भी तैयार होते थे। देश में रेललाईन बिछाने के लिए बस्तर से ही स्लीपरों की आपूर्ति की जाती थी। रेल लाईन सीतानदी और उदंती अभ्यारण्य के बीच से गुजरती थी।ट्रामसेवा चलाने 5-10 किलोमीटर पर कुआं बनाया गया था।रास्ते में पानी भरकर भाप इंजन चलाया जाता था। ट्राम सेवा के रास्ते में छोटे- छोटे कांक्रीट के पुल बनाये गये थे।दस्तावेज बताते हैं कि 1929-30 के दौरान ट्राम सेवा से 29685 यात्रियों ने सफर किया था जिनसे किराये के रूप में 18 हजार ₹ वसूले गये थे।1941 में कंपनी घाटे में चली गई थी।19 नवंबर 1941 को ट्राम सेवा से यात्री परिवहन पूरी तरह बंद कर दिया गया।इस ट्रामसेवा की स्थापना, संचालन ब्रिटिश कंपनी गिलेंडर आर्थोथोट करती थी।बाद में यह कंपनी टैक्सटाईल् उद्योग से जुड़ गई ।यह कंपनी पूरी तरह वनविभाग के अधीन थी।आज भी अंग्रेजों के जमाने के कुछ गेस्ट हाऊस खंडहर अवस्था में मौजूद हैं। जहाँ कभी वहां रेल/वन विभाग के लोग ठहरा करते थे।

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