डॉ एल्विन बेरियर के शोध की नायिका अँधेरे में ख़ो गई……

 {किश्त59}

1940-1950 के दशक में प्रधानमंत्री निवास से लेकर दिल्ली के ही रीगल सिनेमा की चकाचौंध देखने वाली एक बैगा आदिवासी का जीवन कई साल रोशनी के बिना ही बीता। दरअसल बस्तर सहित आदिवासियों को विश्व में प्रसिद्ध कराने वाले लेखक डॉ. एल्विन बेरियर के अंदर हमेशा एक आदिवासी मौजूद रहा, समाज का हिस्सा बने बिना उनका अध्ययन पूरा नहीं होता और 14 साल की कोशी को जीवनसंगिनी बनाने वाले एल्विन ने शोध पूरा होने के बाद अपने परिवार को असहाय छोड़ दिया और मुड़कर भी नहीं देखा, वे खुद तो विश्व प्रसिद्ध हो गये पर उनके शोध प्रबंध की नायिका अंंधेरे में कही खो गई…?
डिंडौरी जिले के करंजिया विकासखंड के ग्राम रैतवार की आदिवासी कोशी सुप्रसिद्ध लेखक डॉ.एल्विन बेरियर के संपर्क में आई और 14 साल की उम्र में ही स्वयं से 16 साल बड़ेअंग्रेज से विवाह कर लिया।आदिवासियों पर 26पुस्तकें लिखने वाले पति के साथ झोपड़ी में लालटेन की रोशनी में भरपूर मदद की। पुस्तकें विश्व प्रसिद्ध होगई। अपना शोध कार्य पूर्ण करने के बाद डॉ. बेरियर दिल्ली चले गये,फिर लौट कर नहीं आये। पीछे छोड़ गये पत्नी तथा जवाहर और विजय नामक दो बच्चे…! बाद में कोलकाता हाईकोर्ट से तलाक मिलने के बाद दोनों बच्चों के साथ कोशी जीवन यापन करती रही, दोनों बच्चों का विवाह किया।दोनों लड़कों की मौत के बाद विधवाओं और उनके बच्चों को भी आश्रय दिया,25 रुपये गुजारा भत्ता से शुरू कोशी का सफर शुरू हुआ। बाद में केन्द्र सरकार ने कोशी को 500,700,800 तथा 1000 की सहायता बतौर पेंशन भी दी।बस्तर सहित आदिवासी अंचल को विश्व में पहचान दिलाने में तो डॉ. एल्विन सफल रहे पर उन्होंने अपनी आदिवासी पत्नी कोशी सहित अपने परिवार के साथ वह न्याय तो नहीं किया जिसके वह हकदार थे। बहरहाल1964 में डॉ. एल्विन तथा 2010 में कोशी ने इस दुनिया से हमेशा के लिए विदा ले लिया।बस्तर का नामआते ही आदिवासी जनजातियों की संस्कृति,रीति रिवाज के अनुसंधान तथा 26 पुस्तकें लिखने डाकूमेंट्री फिल्म बनाने,बस्तर को विश्व में चर्चित करने वाले एल्विन का नाम सामने उभरता है।बस्तर के विषय में लिखने वाले संदर्भ के रूप में डॉ. एल्विन की पुस्तकों का उल्लेख जरूर करते हैं।हाल ही में एल्विन के पुत्र अशोक के बस्तर प्रवास से फिर एल्विन चर्चा में है।वैसे राष्ट्रीय संग्रहालय भोपाल के माध्यम से सारे दस्तावेज और डाकूमेण्ट्री फिल्म को डिजिटलाईट्ज करके संरक्षित करने के उनके प्रयास की चर्चा तेज है।अभी भी एल्विन के1500 से अधिक फोटो और निगेटिव्ह अशोक एल्विन के पास है।जो बस्तर में अपने शोध के दौरान खींचे थे।डॉ. एल्विन पहलेविदेशी हैं जो बस्तर के ‘साहब गारकाल’ के नाम से आदिवासियों के बीच चर्चित हुए।वे बस्तर के ही होकर रह गये,अबूझमाड़ के बिजली ग्राम में उनका स्थायी निवास बन गया।एक अंग्रेज लेखक एवं मानवशास्त्री,पद्मभूषण पुरस्कार प्राप्त डॉ.एल्विन ने एक आदिवासी लड़की कोशी से विवाह किया था तब एल्विन की उम्र 40 वर्ष थी और कोशी की उम्र 14 साल।यह ठीक है कि तब विवाह आदिवासी रीति- रिवाज के अनुसार ही हुआ पर 9-10 साल बाद एल्विन अपने शोध के बाद चले गये बाद में तलाक भी ले लिया पर अंतिम समय तक कोशी 90 वर्ष की उम्र तक तनहा ही अपना जीवन गुजारती रही।कोशी अपनी जिंदगी के 90 साल की उम्र में अपनी मौत तक अपना वजूद तलाशती रही।14 साल की उम्र में विवाह और 23 साल की उम्र में कोर्ट द्वारा एक तरफा तलाक के बाद भी कोशी पूरा जीवन अपने रिश्ते को मन से माना और दुनिया से कूच कर गई।कभी डिडौरी में बैगा आदिवासी समुदाय के गांव रैतखार आकर न जाने कैसे एल्विन बस्तर पहुंच गये। वैसे तो एल्विन इसाई धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए आये थे पर वे बस्तर में ही बस गये।आदिवासी जन जाति पर अनुसंधान,रीति- रिवाज,संस्कृति परअध्ययन करते-करते उन्होंने एक अनपढ़ 14 साल की कोशी से बकायदा आदिवासी परंपरा से विवाह किया।वैसे एल्विन तब पंडित जवाहर लाल नेहरू के मित्र थे तथा महात्मा गांधी से भी प्रभावित थे।शादी के बाद एल्विन ने अपनी पत्नी कोशी को तब मुंबई-दिल्ली की भी सैर कराई थी।यही नहीं कोशी आजादी के बाद नेहरू के प्रधानमंत्री निवास में भी बतौर अतिथि गई थी।उस समय वह गर्भवती थी।एल्विन और नेहरू के साथ फिल्म भी देखा था।
अपनी आत्मकथात्मक पुस्तक The Tribal World of Verrier Elwin में एल्विन ने लिखा है कि उन्होंने अपने पहले पुत्र जवाहर का नामकरण अपने मित्र सारंगढ़ के राजा जवाहिर सिंह के नाम पर किया।यहाँ तक कि उन्होंने अगली लाइन में यह भी लिखा कि इसी नाम के “अधिक मशहूर” व्यक्ति से भ्रम न हो।Dom Moraes ने अपनी पुस्तक Answered by Flutes: Reflections from Madhya Pradesh में इस तथ्य को दोहराया है। Anthropological Survey of India ने एक पुस्तक हाल ही में प्रकाशित की जिसमें एल्विन की दूसरी पत्नी ने भी इसकी पुष्टि की। वैसे सारंगढ़ क्षेत्र में भी आदिवासियों को समझने में बड़ी भूमिका रही है,वे सारंगढ़ कई बार गये था वहाँ कई दिनों तक रुके भी थे। एल्विन-कोशी की 2 संताने हुई उनमें एक का नाम जवाहर,दूसरे का नाम विजय रखा था।एल्विन ने अपने शोध में आदिवासियों के रहन-सहन परंपराए,अंध विश्वास,यौन व्यवहार पर बहुत कुछ लिखा।उसने घोटुल पर भी लिखा।बैगा आदिवासियों पर लिखी पुस्तक ‘The Baigas’ बहुत प्रसिद्ध है। एल्विन की पुस्तकों की नायिका भी संभवत: कोशी ही थी। विवाह के 9-10 साल बाद ही दो बच्चों और उनकी मां कोशी को छोड़ कर एल्विन दिल्ली चले गये। फिर कभी वापस नहीं लौटे। बाद में नेहरू ने एल्विन को शिलांग भेज दिया। कोलकाता के हाईकोर्ट से कोशी बाई को सुने बिना तलाक मंजूर करने की सूचना मिली और 25 रुपये मासिक गुजारा भत्ता मंजूर किया गया।वह भी काफी समय तक नहीं मिला…..।1964 में एल्विन की मृत्यु हो गई और कुछ सालों बाद इसका पता कोशीको चला। वैसे एल्विन ने बाद में दूसरा विवाह भी किया। कोशी का बेटा जवाहर मेकेनिक था उसकी भी मृत्यु हो गई वहीं दूसरा पुत्र भी अभाव की भेंट चढ़ गया।देश की आजादी के बाद ही एल्विन ने भारत की नागरिकता ले ली थी पर उन्होंने एक बार जाने के बाद कभी अपने परिवार की तरफ मुंह ही नहीं किया।लेखक,शोध कार्य पर एल्विन को प्रतिष्ठित साहित्य एकादमी पुरस्कार भी मिला,1964 में एल्विन का निधन हो गया वहीं 22 दिसंबर 2010 को कोशी भी दुनिया को छोड़कर चली गई।उसकी मौत पर कंधा देने वाले 10-12 लोग ही थे।कभी प्रधानमंत्री निवास की अतिथि बनने वाली, बड़े साहित्य का एक बड़ा हिस्सा बनने वाली कोशी से उसकी मौत तक उसके समुदाय के लोग नाराज थे। जाहिर है कि नाराजगी का कारण समुदाय छोड़कर विदेशी से विवाह करना ही रहा होगा…। इस तरह एक प्रसिद्ध लेखक की पत्नी हमेशा गुमनामी का जीवन जीने मजबूर रही।एल्विन ने तो बाद में दूसरा विवाह भी कर लिया।पर कोशीअपने अंग्रेज पति एल्विन की याद में ही अपना पूरा जीवन गुजार दिया। इस उम्मीद पर की कभी तो उसकी सुध ली जाएगी…..?

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