भक्त शिरोमणी माता राजिम, तेलिन और राजिम का नामकरण

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महानदी, सोढ़ुर और पैरी के जीवंत संगम पर स्थित राजिम,छत्तीसगढ़ की प्राचीन नगरी है। नदी के बीच कुलेश्वर महादेव और दाहिने तट में राजीवलोचन मंदिर है। राजिम अंचल की पारम्परिक पंचकोशी के साथ ही मेला के नाम से प्रसिद्ध है। राजिम, राजिम तेलिन की कथा के साथ लोक समर्थित हैं।छत्तीस गढ़ का प्रयाग राजिम पवित्र सांस्कृतिक, ऐतिहा सिक नगरी है, त्रिवेणी संगम (महानदी,सोंढूर तथा पैरी नदी)भी छत्तीसगढ़ की चित्रोत्पला गंगा (महानदी) की गोद में जन्म लेने वाली भक्त माता राजिम थीँ, उनके श्रम,साधना,भक्ति और सेवा का फल ही है।जो आज तक चर्चा में है।वैसे तो राजिम नामकरण के पीछे कई मान्यताएं एवं धारणाएं है, परन्तु उनमें से एक यह भी है कि राजिम नामक एक तैलिन के नाम पर इस स्थान का नाम राजिम पड़ा। कहा जाता है कि एक समय जब राजिम तैलिन तेल बेचने जा रही थी तो रास्ते में पड़े पत्थर से ठोकर खाकर गिर पड़ी,तेल लुढ़कर बहने लगा।राजिम, बहुत दुखी हुई। सास एवं पति द्वारा दिये जानेवाले संभावित दण्ड से आशंकित मन ही मन अपने ईष्ट से रक्षा करने की प्रार्थना करने लगी, देर तक रोते रहने एवं हृदय की व्यथा कुछ कम होने पर बोझिल मन से घर जाने के लिए खाली पात्र को जब वह उठाने लगी तो यह देख हर्ष मिश्रित आश्चर्य हुआ कि तेल पात्र, तेल से भरा हुआ है, वह दिन भर घूम-घूम कर तेल बेचती रही पर उस पात्र का खाली होना तो दूर रहा एक बूंद भी कम नहीं हुआ! राजिम के पति को यह देखआश्चर्य हुआ कि पात्र तेल से भरा हुआ है,अन्य दिनों की अपेक्षा वह अधिक धन लेकर आई। राजिम तेलिन के मुख से घटना का विव रण सुन कर अचरज का ठिकाना न रहा। प्रमाण के लिए दूसरे दिन भी निश्चित स्थान पर जाकर तेलिन राजिम ने वह प्रस्तर खण्ड दिखाया,सास खाली पात्र को उस प्रस्तर पर रख दिया। पूर्व दिन की भांति वह तेल से लबालब भर गया। उस दिन ग्राहकों को तेल बेचने के बाद भी वह पात्र पूर्व की भांति एक बूंद भी रिक्त नहीं हुआ।संध्या घर आकर पुत्र को सूचना दी और योजना बनाई कि उस प्रस्तर खण्ड को खोद कर निकाला जाए। आश्चर्य जनक था कि उस साधारण शिलाखण्ड के स्थान पर चतुर्भुजी भगवान विष्णु सदृश्य श्यामवर्णी मूर्ति निकली। उस मूर्ति को घर लाकर श्रद्घापूर्वक पूजा की जाने लगी। भगवान विष्णु उसी कमरे में स्थापित किये गये,जहां तेल को पेरने का कार्य संचालित होता था, व्यवसाय प्रारंभ करने से पहले उस प्रतिमा में प्रति दिन तेल अर्पित कर पूजा अर्चना होने लगी ।बात 12 वीं सदी की है तब राजा जगतपाल का राज्य दक्षिण कोसल में था। उन्हें भी स्वप्न आया कि लोक कल्याणार्थ एक मंदिर का निर्माण करेँ, प्रतिमा स्था पित करें। स्वप्न के आदेशा नुसार राजा ने मंदिर का निर्माण किया, प्राण प्रतिष्ठा के लिए एक सिद्घ मूर्ति की खोज में लगा रहा।अब तक राजिम तैलिन के चमत्कार की कहानी सर्वत्र फैल चुकी थी। राजा ने मन में भी इसी मूर्ति को नवनिर्मित मंदिर में स्थापित करने का संकल्प लिया।राजा ने राजिमतेलिन से मूर्ति की मांग की, उसके बदले में उचित इनाम देने की बात कही। राजाज्ञा का उल्लंघन संभव नहीं था स्वयं राजिम तेलिन चाहती थी कि उसके इस अराध्य के अनेक भक्त बनेँ ,अत: माता राजिम नें राजा से कुछ मोहलत मांगी? कहा जाता है कि उसी रात्रि भगवान ने माता राजिम को दर्शन दिया, उन्होंने मांग की कि भगवान तो राजा के हाथ में सुरक्षित हो जाएंगे उन्हें यह वरदान दिया जाये कि भगवान के साथ ही उनका नाम भी जुड़ा रहे। इस शर्त पर राजिम तेलिन से वह मूर्तिं राजा जगतपाल को सौंप दी,उसी दिन से भगवान राजीव लोचन, राजिम लोचन के नाम से पुकारे जाने लगे।इस तरह 12 वीं सदी में ही इस तैलिक कल्याणी राजिम भक्तिन ने ईश्वर दर्शन, सभी जाति धर्म के लिए सुलभ कराने का गौरव प्राप्त किया।

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