{ किश्त131}
सन 1975 में देश के कृषि वैज्ञानिक डॉ.आरएच रिछारिया को मप्र राइस रिसर्च इंस्टीट्यूट का संचा लक बनाया गया था। तब मप्र और छग एकथा,इन्होंने गांव-गांव से 23000 किस्मों के धान का संग्रहण किया,उनके गुणों का परी क्षण कर उन्हें लिपिबद्ध भी किया। डॉ. रिछारिया का वह योगदान तो अमूल्य है लेकिन धान पर अनुसंधान का काम अभी भी निरंतर जारी है।छग को धान का कटोरा भी कहा जाता है क्योंकि यहां धान की 23 हजार से ज्यादा किस्में हैं।जो देश के किसी राज्य में नहीं है। यही नहीं, दुनिया में फिलीपींस ही ऐसा देश है जहां छत्तीसगढ़ से ज्यादा धान की किस्में 26 हजार हैं। खैर छ्ग के जर्म प्लाज्म को हथियाने का भी देशी- विदेशी स्तर पर प्रयास भी हुआ था…!1986 में यह कहानी थी डॉ.आर एच (राधे,हीरा लाल) रिछारिया की।मप्र मूल के डॉ. रिछा रिया,सारी दुनिया में चावल उत्पादन,उस पर होने वाले शोध के बड़े वैज्ञानिक थे। गांधीवादी, स्वदेशी के हिमा यती….! विचारों से अडिग! उनके द्वारा विकसित की गयी या दस्तावेज़ों में लायी गयी चावल की उस समय लगभग 19 हजार किस्में हैं। उनके बाद इंदिरा गांधी कृषि विवि जहां उनकी ये किस्में शायद (?) रखी हैं, मात्र 5000 किस्में ही जोड़ पाया है। डॉ.रिछारिया कहा करते थे कि ये वे प्रजातियां हैं जो भारत की चावल ज़रूरत को पूरा कर सकती हैं,जिनसे हमारे खेत भी सुरक्षित रहेंगे और उनकी उर्वरता भी बची रहेगी, दुनिया के कुछ ‘चौधरी’ किस्म के देश,जिनका सर दार अमेरिका है,नहींचाहता था कि खाद्यान्न के मामले में कोई भी देश तरक्की करे इमनीला (फिलीपींस)स्थित चावल के विकास औरशोध के लिए बनी दुनिया कीबड़ी इंटरनेशनल राइस रिसर्च इंस्टिट्यूट,अमेरिका द्वारा पोषित है। उन्होंने भारत के बड़े नायाब ‘चावल-खजाने’ पर डाका डालने की भी कोशिश की। उनके कुछ वैज्ञानिक हमारी प्रयोग शालाओं में घुसना चाहते थे,जो डॉ. रिछारिया को मंजूर नहीं था। वे कीमती “जर्मप्लाज्म” लेना चाहते थे।शुरू में कहा गया था कि हम कुछ भी ‘मुफ्त’ थोड़ी लेंगे,उसकी कीमत भी देंगे डॉ. रिछारिया ने किसी भी विदेशी को भारतीय प्रयोग शालाओं में घुसने ही नहीं दिया और सिद्ध भी कर दिया कि अपनी किस्मों के बदले ये हमें जो भी दे रहे हैं,वे किस्में, कीट बीमारी रोधी नहीं हैं। हमारे खेतों में आते ही ये बीमारियां और कीड़े ज़रूर फैलाएंगी,’आई आरआरआई'(इंटर नेशनल राइस रिसर्च इंस्टिट्यूट) ने कहा ही था कि वे भारत में घुसने की कीमत देंगे,सो सरकार में कुछ राजनेता, अफसर भी सक्रिय हो गये, अमेरिकी व्यापारिक षड्यंत्र में रोड़ा बनरहे डॉ.रिछारिया पर दबाव के साथ अपमान का दौर शुरू हुआ। बीच में उन्हें विश्व खाद्य संगठन में नौकरी का प्रस्ताव भीआया पर उन्होंने प्रस्ताव ठुकरा दिया।षड्यंत्र से सरकारी तंत्र ने उन पर भ्रष्टाचार का आरोप भी लगा दिया था। घोरआर्थिक संकटों में रह कर वे सर्वोच्च न्यायालय में पूरे सम्मान के साथ जीते उनकी बात को न्याय ने भी माना था,वैसे पहले 1980 में भी विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनी ‘सिंजेंटा’ ने इंदिरा गांधी कृषि विवि रायपुर से करार किया था, आपस में मिलकर चावल की नयी किस्में भी विकसित करेंगे, तब खरीद फरोख्त,परिवार विदेश यात्रा बेटा- बेटी को नौकरी,बड़ी स्कॉलर शिप, नकदी के बदले उस प्रयोग शालामें घुसपैठ कीकोशिश हुई,जहां डॉ.रिछारिया द्वारा विकसित किस्मों के साथ अन्य किस्में रखी हैं। करार में ‘सिंजेंटा’को ‘जर्म प्लाज्म’ देना शामिलथा,बंधनकारी भी थाअंतत: बड़े विरोध के चलते ‘डील’ भी कैंसल’हुई।
कुछ जिलों की
खास किस्में…
कृषि विवि रायपुर के कैंपस में राज्य के हर जिले में प्रच लित धान की एक खास किस्म की खेती की जा रही है। ताकि उनका संरक्षण, संवर्धन हो सके।सूत्रों के अनुसार छोटे दाने वाले धान की सुगंधित किस्मों के मामले में प्रदेश समृद्ध हैं। राजनांदगांव में चिन्नौर, सिहावा-नगरी में दुबराज तो अंबिकापुर में बिसनी, गौरेला पेंड्रा में विष्णुभोग, लोहंदी, लुचई किस्में पाई जाती हैं,सूरजपुर में श्याम जीरा,बेमेतरा में कुबरीमोहर जगदलपुर में बादशाह भोग गोपाल भोग तो रायगढ़ में जीराफूल की खेती कुछ किसान करते हैं। छग का सुगंधित धान पूरे देश में अपनी पहचान रखता है यहां जितने गढ़ हैं,धान की उतनी खास किस्में मौजूद हैं। पर एक दौर ऐसा भी आ चुका है, किस्में विलुप्ति की कगार पर पहुंच गई थीं, तब इंदिरा गांधी कृषि विवि ने किसानों से मिलकर इन्हें सहेजा। कृषि विज्ञान केंद्रों ने भी इस काम में पूरी मदद की। महज 10- 15 साल पहले जवाफूल, दुबराज विष्णुभोग, लुचई जैसी सुगंधित धान की किस्में राज्य की पहचान थी। किसानों को इनकी पैदा वार से लाभ नहीं हो रहा था।धीरे-धीरे स्वर्णा, एम टीयू 1010 जैसी किस्मों को सरकार समर्थन मूल्य पर खरीदने लगी।सुगंधित धान की कई वैरायटी विलुप्ति की कगार पर पहुंच गई थी।कई गांवों से तो ये गायब ही हो गई।कुछ किसान अपने उपयोग के लिए सीमित क्षेत्र में उगा रहे थे, लेकिन उनकी संख्या, क्षेत्र सीमित था। इसे गंभी रता से लेते हुए कुछ साल पहले इंदिरा गांधी कृषि यूनिवर्सिटी रायपुर ने इन्हें सहेजने का बीड़ा उठाया हैऔर उसे सफलता भी मिली है।