{किश्त 71}
शिवरीनारायण,सतयुग में बैकुंठपुर,त्रेतायुग में रामपुर, द्वापरयुग में विष्णुपुरी और नारायणपुर के नाम से विख्यात था।चित्रोत्पला गंगा(महानदी)के तट पर कलिंग भूमि के निकट दैदीप्यमान है।छत्तीसगढ़ को श्रीराम की माता कौशिल्या का मायका माना जाता है,राम लखन ,सीता ने 14साल के वनवास का बड़ा समय छ्ग में गुजारा है….।माता शबरी के बेर भी शिवरीनारायण में ही खाया था…..रामायण में एक प्रसंग आता है जब देवी सीता को ढूंढते हुए राम और लक्ष्मण दंडकारण्य में भटकते हुए माता शबरी के आश्रम में पहुंच जाते हैंजहां शबरी उन्हें अपने जूठे बेर खिलाती है जिसे राम बड़े प्रेम से खा लेते हैं। माता शबरी का आश्रम छग के शिवरीनारायण(जांजगीर जिला)में मंदिर परिसर में स्थित है।महानदी,जोंक और शिवनाथ नदी के तट पर स्थित मंदिर,आश्रम प्रकृति के खूबसूरत नजारों से घिरा हुआ है।शिवरी नारायण मंदिर के कारण ही यह स्थान छत्तीसगढ़ की जगन्नाथपुरी के नाम से भी प्रसिद्ध है.मान्यता है कि इसी स्थान पर प्राचीन समय में भगवान जगन्नाथ की प्रतिमा स्थापित थी,बाद में प्रतिमा को जगन्नाथपुरी में ले जाया गया था…! इसी आस्था के फलस्वरूप माना जाता है कि आज भी प्रभु जगन्नाथ यहां आते हैँ…
शबरी आश्रम
शबरी का नाम श्रमणा था वह भील समुदाय के शबर जाति से सम्बन्ध रखतीथीं उनके पिता भीलों के राजा थे।बताया जाता है कि उनका विवाह एक भील कुमार से तय हुआ,परम्परा के अनुसार विवाह से पहले सैकड़ों बकरे-भैंसे बलि के लिए लाये गए,जिन्हें देख शबरी को बहुत बुरा लगा कि यह कैसा विवाह जिसमें इतने पशुओं की हत्या की जाएगी?शबरी विवाह के एक दिन पहले ही घर से निकल गई।घर से भागकर दंडकारण्य पहुंच गई और स्थायी निवासी बन गई।वैसे शवरीनारायण मंदिर परिसर में एक कटोरीनुमा पत्ता कृष्णवट का है।लोगों का मानना है कि शबरी ने इसी पत्ते में रखकर श्रीराम को बेर खिलाए थे।दंडकारण्य में ऋषि तपस्या किया करते थे,शबरी उनकी सेवा तो करना चाहती थी पर वह भील जाति की थी और उसे पता था कि उनकी सेवा कोई भी ऋषि स्वीकार नहीं करेंगे।उन्होंने एक रास्ता निकाला,वे सुबह ऋषियों के उठने से पहले उनके आश्रम से नदी तक मार्ग का रास्ता साफ़ कर देती थीं,कांटे,कंकड़ आदि हटा कर रास्ते में रेत बिछा देती थी।यह सब वे ऐसे करती थीं कि किसी को इसका पता नहीं चलता था।एक बार ऋषि मतंग की नजऱ ज़ब शबरी पर पड़ी तो वे उनके सेवाभाव से प्रसन्न होकर शबरी को अपने आश्रम में शरण दे दी,इस पर ऋषि का सामाजिक विरोध भी हुआ पर उन्होंने शबरी को अपने आश्रम में ही रखा।जब मतंग ऋषि की मृत्यु का समय आया तो उन्होंने शबरी से कहा कि वे अपने आश्रम में ही भगवान राम की प्रतीक्षा करें,वे उनसे मिलने जरूर आएंगे।मतंग ऋषि की मृत्यु के बाद शबरी का समय श्रीराम की प्रतीक्षा में बीतने लगा,वह अपना आश्रम एकदम साफ़ रखती थीं। रोज राम के लिए मीठे बेर तोड़कर लाती थी। बेर में कीड़े न हों और वह खट्टा न हो इसके लिए वह एक-एक बेर चखकर भी देखतीं थी। ऐसा करते-करते कई साल बीत गए।एक दिन शबरी को पता चला कि दो युवक उन्हें ढूंढ रहे हैं। वे समझ गईं कि उनके प्रभु राम आ गए हैं,तब तक वे बूढ़ी हो चुकी थीं,लाठी टेक चलती थीं।लेकिन राम के आने की खबर सुनते ही उन्हें अपनी कोई सुध नहीं रही,भागती हुई उनके पास पहुंची और उन्हें घर लेकर आई और उनके पाँव धोकर बैठाया।अपने तोड़े हुए मीठे बेर राम को दिए।राम ने बड़े प्रेम से वे बेर खाए और लक्ष्मण को भी खाने को कहा।लक्ष्मण को जूठे बेर खाने में संकोच हो रहा था,राम का मन रखने के लिए उन्होंने बेर उठा तो लिए लेकिन खाए नहीं. कहा जाता है कि इसी कारण ही राम-रावण युद्ध में जब शक्ति बाण का प्रयोग किया गया तो लक्ष्मण मूर्छित हो गए थे।खैर शिवरीनारायण मंदिर की ऐतिहासिकता का अंदाज तो वहाँ जाकर ही होता है।