{किश्त126}
आदिवासी अंचल बस्तर में मनोरंजन के परंपरागत साधनों में मुर्गा या कुकड़ा लड़ाई का अपना स्थान है। साप्ताहिक हाट बाजारों में मुर्गों की लड़ाई के मैदान तय होता है। लड़ाई के लिए विशेष तौर पर प्रशिक्षित मुर्गे हथियार बांधकर युद्ध मैदान में उतरते हैं, लड़ाई तभी खत्म होती है जब दो में से एक मुर्गे की मौत हो जाती है। मुर्गा लड़ाई देखने हजारों की भीड़ उमड़ती है। मुर्गों पर लाखों रूपये का दांव लगता है।आंध्रप्रदेश, तेलंगाना और ओड़िसा के लोग भी दांव लगाने आते हैं। एक मैदान में दिनभर में करीब 50 लड़ाइयां हो ही जाती हैं।’मुर्गा लड़ाई’ देखने में बहुत रोचक होती है,गांव कस्बों मैं मनोरंजन का भी हिस्सा हैँ।मुर्गा को लड़ने खासतौर पर न केवल प्रशि क्षण दिया जाता है, बल्कि उसके खान-पान पर भी विशेष ध्यान दिया जाता है। लड़ाई को आदिवासियों की संस्कृति से जोड़ कर देखा जाता है।बस्तर में मुर्गा लड़ाई के लिए कई क्षेत्रों में मुर्गा बाजार लगाया जाता है। इतिहास के पन्नों में मुर्गा लड़ाई की कोई प्रमाणिक जानकारी तो नहीं मिलती है,लेकिनआदिवासी समाज में मुर्गा लड़ाई कई पीढ़ियों से आम मनोरंजन काहिस्सा बना हुआ है। जनजातीय समाज में परंपरागत मनो रंजन के तौर पर मुर्गो की लड़ाई सदियों से प्रचलित है।स्थानीय भाषा में मुर्गो की लड़ाई को तो ‘कुकड़ा गली’ कहते है। ये कोई साधारण मुर्गो की लड़ाई नहीं होती है। मुर्गे की यह प्रजाति ‘असील’ बेहद लड़ाकू,गुस्सैल,आक्रमक होती है।ग्रामीण असील मुर्गे को विशेष तौर पर लड़ने के लिये प्रशिक्षित भी करते है। आमतौर परअसील प्रजाति के मुर्गों को लड़ाई के उप युक्त माना जाता है।इसका वैज्ञानिक नाम गेलस डोमे स्टिका है।मूलत: आंध्रप्रदेश की प्रजाति की बस्तर में करीब 13 उप प्रजातियां भी पाई जाती हैं, चित्ता, जोंधरी, सुकनी आदि नामों से भी पुकारा जाता है।एक असील नर का वजन करीब पांच किलो होता है, मादा तीन किलो तक की होती है, जैसे बाक्सिंग के लिये रिंग होता है उसी तरह मुर्गो के लड़ने नियत स्थानों पर गोलाकार तारबंदी युक्त रिंग होते है। इसके बाहर लोगों की भीड़ जमा होती है जो अंदर लड़ते हुये मुर्गो के दृश्यों का आनंद लेते है। मुर्गो की लड़ाई बेहदखूनी होती है क्योंकि इन मुर्गो के पैर में चाकू बांधा जाता है जिसे काती कहते है।मुर्गे के पैर में तेज धारदार चाकू (काती) बांधा जाता है। मुर्गों की लड़ाई करवाई जाती है। जो मुर्गा मर जाता है या लड़ाई छोड़ कर भाग जाता है। वह हार जाता है और मैदान में बचा मुर्गा विजेता घोषित किया जाता है। मुर्गा लड़ाई देखने दर्शक के रूप में उपस्थित लोग अपने मनपसंद मुर्गे पर दांव लगाते हैं। यह मुर्गा लड़ाई बस्तर की संस्कृति का अहम हिस्सा तो होता ही है वहीं मनोरंजन और जोर आजमाइश का भी खेल है।