लेेेखक/ पत्रकार
क्या अतृप्त आत्माएं सच में होती हैं। यदि होती हैं तो वो हर किसी को नजर क्यों नहीं आतीं। क्या कारण है कि वो सुधा जैसी महिलाओं को ही अपना शिकार बनाती हैं। क्या सुधा खुद किसी अतृप्त आत्मा से कम थी। उसका कठिनाईयों से भरा बंधनयुक्त जीवन उसे जीवन भर अतृप्त रखता आया है। कभी मल्हार ने उसकी सुध लेने की कोशिश भी नहीं की। दूसरी और सुधा जीवनपर्यंत मल्हार की राह देखती रही। उसे विश्वास था कि उसका मल्हार कभी तो लौटेगा। वह उसे धोखा नहीं दे सकता। वह उसे भूल नहीं सकता। लेकिन शायद सुधा नहीं जानती थी कि नियति की क्रूर कलम ने उसके लिए दुर्भाग्य लिखा था।
कहते-कहते नुपूर का गला भर आया। वीरेंद्र उसके लिए पानी का गिलास लेने किचन की तरफ चला गया। जब वह नुपूर के लिए पानी लेकर लौटा तो देखा कि वो सुधा की तस्वीर निकालकर बैठी है। वीरेंद्र ने उसे पानी का गिलास थमाया और कुशन लेकर उसके पास ही जमीन पर बैठ गया। क्या हुआ था सुधा को, बताओगी नहीं? उसने नुपूर के सर पर हाथ फैरते हुए पूछा। लेकिन नुपूर तो जैसे पुरानी यादों में खो गई थी। वह वीरेंद्र के पास थी ही कहां।
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5 वर्ष की नन्हीं सुधा जब भी अपनी मां को पुकारती तो कभी उसे अपने पास नहीं पाती। उसकी मां उसके शराबी पिता से पिटकर कही बेहोश पड़ी होती। बेसुध मां को बेटी का रुदन सुनाई नहीं देता। भूख-प्यास से बिलखती सुधा कब सो जाती, ना उसे पता चलता ना मां को ना पिता को। थोड़ी बड़ी हुई तो एक दिन पिता द्वारा मां की हत्या किए जाने की चश्मदीद गवाह बनी। किशोर होने तक कोर्ट-कचहरी के ना जाने कितने चक्कर लगाए। बार-बार पिता द्वारा मां की हत्या किए जाने के चित्रण ने उसके किशोर मन में गहरा अंधियारा भर दिया। बूढ़े दादा-दादी ने उसे पाल पोसकर जवान किया। कभी पढ़ाई लिखाई में मन नहीं लगा। कक्षा में हमेशा ही औसत रही सुधा ने जब स्नातक तक लिया तो दादा ने मल्हार के साथ उसका विवाह तय कर दिया। बचपन से पिता की डरावनी छवि देखती आई सुधा पर जैसे वज्रपात हो गया। पति की कल्पना उसके लिए उतनी ही खौफनाक थी, जितनी पिता की छवि थी। लेकिन बचपन से जैसे वह अबोली थी, कभी मन की कोई बात किसी कह पाने का अवसर नहीं मिला था उसे। मां से लेकर दादी तक, स्कूल से लेकर कॉलेज तक, सखी-सहेली से लेकर किसी शिक्षिका तक, कभी ना तो किसी ने उसे जानने की कोशिश ही की, ना ही वह कभी खुद के बारे में किसी को बता पाई सुधा। ये दुनिया उसके लिए जैसे एक पिंजरा था। जिसमें उस पंछी को कैद कर दिया गया था, जिसे यह भी नहीं पता था कि वह उड़ भी सकता है। उसके पास पर हैं, उसके पास क्षमता है, कला है उड़ने की। पंछी यदि पिंजरे में ही पैदा हुआ हो तो उसे उसके नैसर्गिक गुण पता चलेंगे भी कैसे। जिस पंछी ने अपनी मां तो भी पिंजरे में फड़फड़ाकर प्राण छोड़ते देखा हो, वो कैसे जाने कि प्रकृति ने उसे किन नेमतों से बख्शा है। कुछ ऐसी ही स्थिति सुधा की भी थी।
लेकिन कहा गया है कि ‘घूरे’ के भी दिन पलटते हैं। जीवन में कभी कोई दिन तो ऐसा निर्धारित है, जब हम अपने अंदर के सुख से, अपनी शक्तियों से, अपनी क्षमताओं से परिचित होते हैं। कुछ ऐसा भी सुधा के साथ हुआ। हुआ यूं कि सुधा के बगल में डॉ. चितरंजन का परिवार रहने आया। डॉक्टर साहब की बेटी नुपुर सुधा की हमउम्र थी। नुपूर ने नए घर के पास-पड़ौसियों से परिचय करना शुरु किया तो उसने पाया कि उसके बगल में उसकी मित्र बनने के लायक एक युवती रहती है, नाम है सुधा। फिर क्या था नुपूर सुधा के करीब आने लगी। अपनी ही दुनिया में सीमित सुधा को पहले तो ये अच्छा नहीं लगा। लेकिन संकोचवश वह नुपुर को रोक भी नहीं पाई। नुपूर का अल्हड़पन, मनमोहक अंदाज और साफदिल रवैया सुधा को धीरे-धीरे आकर्षित करने लगा। नुपूर ने ही उसे अहसास करवाया कि वह यानि सुधा कितनी सुंदर है। उसके लंबे केश, काली-गहरी आंखे, छरहरा बदन किसी खूबसूरत अभिनेत्री जैसा है। नुपूर ने उसे बताया कि दुनिया भी उतनी बुरी नहीं, जितनी सुधा ने देखी है। सुधा भी अब कभी-कभा नुपूर के घर जाने लगी। नुपूर के घर का माहौल सुधा के घर से बिलकुल भिन्न था। नुपूर के माता-पिता एक दूसरे से दोस्तों जैसा व्यवहार करते थे। सुधा ये देखकर आश्चर्य में पड़ जाती थी। उसे तो बस यही पता था कि पति शराबी और क्रूर होते हैं। उसके दादाजी भले ही क्रूर न रहे हों, लेकिन शराब वह भी पीते थे, दादी उनके गुस्से के डर से सहमीं रहती थीं। अपने पिता की क्रूरता की गवाह तो सुधा थी ही। धीरे-धीरे उसे समझ आने लगा कि हर पति बुरा नहीं होता। वह नुपूर के पिता डॉ चितरंजन जैसा अच्छा भी हो सकता है।
शनैः शनैः गुजरते वक्त के साथ आखिर वह दिन भी आ ही गया, जब सुधा को मल्हार की बन जाना था। लेकिन सुधा अब आश्वस्त थी कि उसका जीवन शादी के बाद नर्क नहीं बनेगा। उसके मन का डर निकल चुका था। जीवन जीने की एक उत्कंठा उसे आगे बढ़ने की प्रेरणा देने लगी थी।
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सुधा और मल्हार की शादी को तीन महीने बीत चुके हैं। लेकिन सुधा ने मल्हार को केवल विवाह के दिन ही देखा था। शादी करके सुबह ब्रह्ममुहूर्त में ही विदा होकर वह मल्हार और उसके परिजनों के साथ ससुराल पहुंची तो मल्हार का ड्राइवर लगेज और कार लेकर पोर्च में ही खड़ा था। मल्हार हड़बड़ी में अपने घर के भीतर भागे। सुधा के साथ गृहप्रवेश की रस्म भी नहीं निभाई मल्हार ने। करीब 15 मिनट लगे होंगे, मल्हार कपड़े बदलकर हॉल में आया, जहां मुझे अकेले ही गृहप्रवेश करके लाया गया था। उसने अपने सभी बड़ों से आशीर्वाद लिया और सीधे कार में बैठकर निकल गया। उसवक्त सुधा को बड़ा अटपटा लगा। उसे समझ नहीं आया कि मल्हार अपनी नई नवेली दुल्हन को छोड़कर गृहप्रवेश की बगैर कोई रस्म निभाए कहां भागा जा रहा है। ससुरालवालों ने सत्यनारायण की कथा करवाई। सुधा की मुंह दिखाई हुई और उसे उसके कमरे में पहुंचा दिया गया। आलीशान घर का एक साधारण सी साजसज्जा वाला कमरा। खुले-खुले घर का एक बंद-बंद सा कमरा। पूरे मकान में बिलकुल कोने में एकांत में अकेला सा लगने वाला कमरा सुधा को मिला था। कुछ दिन तो ससुराल में ठीक-ठाक बीते। किसी ने यह बताने की जरूरत नहीं समझी कि मल्हार एकाएक कहां चला गया। ना ही सुधा की हिम्मत ही हुई पूछने की। घर में सास थी, ससुर थे, एक ननद और एक देवर था। सब अंतर्मुखी से लगते थे, कम बोलना, मुस्कुराना भी कम। ऐसा लगता था कि घर में कोई रौनक ही नहीं है। लोग ज्यादातर वक्त अपने-अपने कमरों में बिताना पसंद करते थे। ऐसे अबोले लोगों के बीच सुधा एक बार फिर से अबोली होने लगी थी। उसने एक बार अपने दादा जी को अपनी पीड़ा बताने की कोशिश की, लेकिन वे उसके प्रति उदासीन रहे। धीरे-धीरे सुधा को समझ आ गया कि दादाजी ने उसे पोती समझकर नहीं, बल्कि एक जबरन थोपी गई जिम्मेदारी समझकर पालापोसा और विदा कर दिया है। उसे कभी समझ नहीं आया कि दादाजी अपने बेटे के ही हिमायती थे, पोती यानि सुधा की गवाही से बेटे का जेल जाना उन्हें मंजूर नहीं था। लेकिन जब ऐसा हुआ तो दुनिया के डर से उन्होंने सुधा को प्रताड़ित तो नहीं किया, किंतु मन ही मन दुश्मन की नजर से देखने लगे। उन्हें पता था कि मल्हार को केवल दुनिया को दिखाने के लिए एक पत्नी की जरूरत थी। जो सजातीय हो, घर-परिवार में बराबरी की हो और जीवनपर्यंत उसके माता पिता की सेवक बनकर रहे। उसने तो अपना घर पहले से ही गैरजात के साथ बसा लिया था। लेकिन अपनी मां की जिद के आगे झुककर सुधा को ब्याह कर केवल इसलिए लाया था कि उसका परिवार समाज में सर उठाकर रहे। उसके छोटे भाई-बहन के विवाह में कोई अड़चन ना आए। कुल मिलाकर मल्हार, उसके घरवालों, सुधा के दादाजी ने मिलकर ही यह षडयंत्र रचा था, जिसकी भनक समय रहते सुधा को लग ही नहीं पाई।
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एक रात सुधा गहरी नींद में थी कि उसे अपने कमरे में किसी के होने का अहसास हुआ। ये कौन हो सकता है, सुधा सोचने लगी। कोई नजर नहीं आ रहा था, लेकिन किसी के होने की, लंबी-लंबी सांस लेने की आवाज उसे स्पष्ट सुनाई दे रही थी। उसे लगा कि कोई उसके ऊपर है, उसमें समाता जा रहा है। उसने छूटने की बेतहाशा कोशिश की, लेकिन उस अदृश्य आलिंगन से वह छूट ही नहीं पाई। आहिस्ता-आहिस्ता उसकी आंखे बोझिल होने लगी। अपने ऊपर सवार बोझ को लिए ही उसकी आंख लग गई। सुबह जब नींद खुली तो दिन चढ़ आया था। घड़ी की तरफ देखा तो दस बज चुके थे। उसने हड़बड़ाकर उठना चाहा तो शरीब टूटा-टूटा सा लगा। अजीब की अकडन महसूस हुई शरीर में। अपने अस्त-व्यस्त बिस्तर को देखकर लगा कि रात में कोई उसके साथ था। लेकिन कौन?
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ये मुंबई का जुहू बीच है। समंदर यहां खिलंदड अंदाज में मचलता है। इसके किनारे सैंकडों लोग सुरमई शाम का रसपान करने पहुंचते हैं। घंटों बैठे-बैठे समंदर की उठती-गिरती लहरों को देखते रहते हैं। अपने अंदर के कचरे को समंदर लहरों के जरिए बाहर फेंकता रहता है। कभी-कभी अपने किनारे पड़ी वस्तुओं को अपने आगोश में समेटकर ले भी जाता है। सुधा इसी जुहू बीच के किनारे खड़ी सोच रही थी कि वो यहां तक पहुंची कैसे? दो दिन पहले वह रात में जब सोई तो जैसे लगा कि कई दिनों तक उसकी आंख ही ना खुली हो, और आज जब होश आया है तो खुद को सतना से इतनी दूर मुंबई में पाया है। वहां घरवाले परेशान हो रहे होंगे कि मैं कहां चली गई हूं। लेकिन कोई है जो मेरा हाथ थामा हुआ है, पर नजर नहीं आ रहा है। कौन हो तुम, सामने क्यों नहीं आते? मुझे क्यों परेशान कर रहे हो।
लेकिन ये अदृश्य शक्ति क्या सच में मुझे परेशान कर रही है। इसने तो मेरे अधूरेपन को पूरा किया है। सुधा मन ही मन सोचने लगी। तभी उसे नुपूर की आवाज सुनाई दी। अरे सुधा, तुम मुंबई में, कैसे?कब आई? मल्हार कहां है? एक ही सांस में बीसियों सवाल दाग दिए नुपूर ने। सुधा कुछ बोल पाती, उसके पहले नुपूर ने उसे बाहों में भर लिया। गले से लगा लिया। सुधा हक्की-बक्की खड़ी सोचती रही, कि अब इसको क्या बताऊं। लेकिन नुपूर का वही पुराना स्नेह पाकर उसकी रुलाई फूट पडी। उसने उसे मल्हार के बारे में सबकुछ बता दिया। पिछले कुछ दिनों से साथ घट रही घटनाओं के बारे में भी बताया। मल्हार के बारे में सुनकर नुपूर उबल ही पड़ी। तुम क्यों झेल रही हो ये सब। जरूरत क्या है, चल अब मुझे मिल गई है ना तू। मैं तुझ कहीं नहीं जाने दूंगी। मैं आजकल यहीं हूं मुंबई में। हम साथ में रहेंगे। तुम चिंता मत करो।
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नूपुर सुधा के मिलने से इतनी खुश थी कि उसने उसकी दूसरी बात पर गौर ही नहीं किया। कोई था जो सुधा के साथ था रात-दिन। जो उसे सतना से मुंबई के जुहू बीच ले आया था। ठीक उसी समय जब नुपूर भी जुहू बीच पर थी। वो कौन था जिसने सुधा को नुपूर से मिलवा दिया था। उसे कैसे पता था कि नुपूर ही सुधा की मदद कर सकती है। खैर, सुधा को ना तो अपने मायके से कोई मतलब रह गया था ना ही ससुराल से। उसे पूरी उम्मीद थी कि वो दोनों परिवार भी उसके गुमशुदा होने के बाद बिलकुल भी परेशान नहीं हुए होंगे। ना ही उन्होंने उसे ढूंढने का ही कोई प्रयास किया होगा। सो सुधा भी खुशी-खुशी नुपूर के साथ रहने लगी। लेकिन एक दिन अचानक नुपूर की नींद आधी रात में खुली। उसे बहुत जोर से प्यास लग रही थी। उसने देखा सुधा अपने बिस्तर पर नहीं थी। उसने सोचा कि बाथरूम या किचन में होगी। वह पानी लेने किचन की तरफ चल पड़ी। सुधा वहां भी नहीं थी, ना बाहर के हॉल में, ना बाथरूम में। फिर वह इतनी रात गए कहां चली गई। नुपूर घबराने वाली लड़कियों में से नहीं थी। उसकी परवरिश बड़े बिंदास अंदाज में हुई थी, लेकिन उसका चिंतित होना जायज था। लेकिन वह कर भी क्या सकती थी। सबसे ज्यादा आश्चर्य उसे तब हुआ जब उसने मुख्यद्वार पर जाकर देखा तो उसे अंदर से ही बंद पाया। फिर सुधा बाहर कैसे चली गई। यही सोचते-सोचते नुपूर की आंख लग गई।
किसी तरह सुबह हुई। नुपूर ने आंखें खोली तो सुधा चाय लिए खड़ी मुस्कुरा रही थी। नुपूर ने उससे कुछ नहीं कहा। दिन सामान्य तरीके से बीत गया। नुपूर दफ्तर चली गई, सुधा घर के कामकाज में जुट गई। रात भी सामान्य तरीके से बीत गई। धीरे-धीरे नुपूर ने गौर करना शुरु किया कि सुधा पहले से ज्यादा संजने संवरने लगी है। पहले से ज्यादा खुश रहने लगी है। चेहरे पर अलग ही तरह की आभा नजर आने लगी है। एक दिन प्यार से नुपूर ने पूछा- सुधा कोई पसंद आ गया है क्या। किसी से प्रेम करने लगी हो। सुधा ने मुस्कुराकर प्रश्न को टाल दिया। बोली मुझे तो बस नुपूर पसंद है और कोई नहीं। बात हंसी-मजाक में उड़ गई।
सुधा कभी अकेले में बात करती नजर आती, कभी किसी को झिडकते, कभी रात में गायब मिलती, कभी उसके शरीर से एक अलग ही सुगंध महसूस होती। उसके हावभाव एक मां की तरह ज्यादा दिखाई देते। नुपूर समझ नहीं पा रही थी कि सुधा में किस तरह का बदलाव आ रहा था।
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आखिर एक दिन ऐसा आया, जब नुपूर ने देखा सुधा बेसुध पड़ी है। उसके पास एक पत्र पड़ा है। जिसमें सुधा की हैंडराइटिंग में लंबा चौड़ा कुछ लिखा हुआ है। नुपूर ने पत्र उठाकर पढ़ना शुरु किया।
प्रिय नुपूर,
मेरी प्यारी सहेली। तुम जीवन में हमेशा सुखी रहो। खुश रहो। तुम्हें मनचाहा, प्यार करने वाला, जान लुटाने वाला जीवनसाथी मिले। दोस्त मैं बहुत दिन से तुम्हें कुछ बताना चाहती थी। लेकिन लगा कि तुम मुझे पर हंसोगी। मेरी बात पर विश्वास नहीं करोगी। इसलिए तुम्हें मन की बात बता नहीं पाई। मल्हार के जाने के बाद मेरे अकेलेपन को सागर ने दूर किया। मेरे सुखदुख का साथी बन मुझे उसने संभाला। सागर ही मुझे मुंबई लाया। पत्नी होने का मां होने का सुख दिया। अब तुम सोचेगी कि ये सागर कौन है। मैंने तुम्हें उससे मिलवाया क्यों नहीं। दोस्त, मैं उससे तुम्हें कैसे मिलवाती। सागर इस दुनिया का नहीं था। वह तो एक अतृप्त आत्मा थी, जो मरकर अतृप्त भटक रही थी। लेकिन उसे शायद पता था कि मैं तो जीतेजी अतृप्त हूं। मां, पिता, पति, बच्चे के प्रेम से वंचित अतृप्त आत्मा। मेरी आह उसे मुझतक खींच लाई थी। सागर और उसका बच्चा किसी सड़क दुर्घटना में मारे गए थे। वो दोनों भटक रहे थे। रोज रात मे सागर के बच्चे को मां का प्यार देने, उसके साथ खेलने, घूमने निकल जाया करती थी। मुझे पता है कि एक रात तुम मुझे घर में ना पाकर परेशान हो उठी थीं। लेकिन मैं तुम्हें कुछ बताती तो तुम या तो यकीन नहीं करती, या डर जातीं। ऐसा कितनी ही बार हुआ कि जब मैं और तुम बात करते रहते तो सागर आकर हमारे साथ बैठ जाता। मैं उसे देखकर मुस्कुराती रहती और तुम उसकी मौजूदगी से अनभिज्ञ ना जाने दुनिया जहान की कितनी बातें करती रहतीं। अब मैं पूरी तरह उसके साथ रहना चाहती हूं, इसलिए मैं जा रही हूं। मेरे लिए कोई कर्मकांड, पिंडदान जैसे संस्कार करने की जरूरत नहीं है। मैं नहीं चाहती कि मुझे सागर के प्रेम से मुक्ति मिल जाए। जीवित रहते अतृप्त हो भटकती तुम्हारी सुधा को सागर ने तृप्त किया है। मुझे उसके साथ रहना है। तो मेरा इतना कहा मानकर मुझपर एक अंतिम अहसान और कर देना।
तुम्हारी
सुधा।