पढ़िए प्रियंका कौशल की नई कहानी …”गुमशुदा”

कहानीकार-प्रियंका कौशल

ऐ कल नौ बजे थाने आ जाना। मैं तुम्हें सरकारी अस्पताल ले चलूंगा, वहां कुछ लाशों की शिनाख्त होनी है, आकर देख लेना कि कहीं उनमें तुम्हारा बाप भी ना हो। फोन पर दूसरी तरफ से कही गई इस बात से बंटी का रोम-रोम कांप गया। लेकिन ये कोई नई बात नहीं थी। दरअसल पिछले 25 दिनों से बंटी का पिता सुखराम गुमशुदा है। उसकी कोई खोज-खबर नहीं है। पहले तो बंटी की मां और बंटी ने सुखराम को अपने स्तर पर खूब तलाशा। लेकिन जब अपने मजदूर पिता की कोई जानकारी नहीं मिली तो थकहारकर उसने पुलिस को सूचना दी। पुलिस थाने में बैठे सिपाही ने पहले तो रिपोर्ट लिखने में ही ना-नुकूर की। लेकिन जब बंटी की मां ने हाथ पैर जोड़े तो बड़ी मुश्किल से प्राथमिकी दर्ज हो पाई। लेकिन उसकी कोई पावती उन्हें नहीं मिली। अब जबसे पुलिस में पिता के लापता होने की रिपोर्ट दर्ज करवाई है, तब से ये चौथी बार है कि उसे अज्ञात शवों की शिनाख्त करने बुलाया जा रहा है। बंटी की नजर के सामने पिछली बार का वाकया घूमने लगा है। शहर के एकमात्र सरकारी अस्पताल में जब पिछली बार वो लाश को देखने पहुंचा तो उसका जी मचलने लगा। ऊबकाई सी आई और फिर लगा कि वह चक्कर खाकर यहीं गिर जाएगा। लाश पूरी तरह सड़ी हुई थी, लेकिन बावजूद इसके उसकी लंबाई-चौडाई देखकर उसे झट पता चल गया था कि ये उसके पिता नहीं है। दो दिन तक खाना नहीं खा पाया था बंटी। लेकिन उसके किशोर मन में कई सारे सवाल उठने लगे थे। पिता की चिंता बढ़ने लगी थी। पता नहीं कहां चले गए पापा? क्या पता कोई उनका अपहरण करके ले गया हो? नहीं-नहीं अपहरण तो अमीरों के होते हैं, मेरे पापा तो गरीब हैं, भला कोई उन्हें क्यों अगवा करने लगा। लेकिन क्या पता किसी हादसे के शिकार ही हो गए हों? ये सोचते-सोचते उसकी आंख लग गई। पिछली कई रातों को जागकर ही काटा था बंटी ने। मां भी तो नहीं सोई थी।

अभी उम्र की क्या है उसकी। 14 वर्ष का किशोर, जो कक्षा नौंवी का छात्र है। उसका पिता सेवकराम भले ही मजदूरी कर पेट पालता हो, लेकिन बंटी को खूब पढ़ाना चाहता था। लेकिन जबसे सेवकराम गायब हुआ है, बंटी की पढ़ाई तो जैसे पीछे ही छूट गई है। मां ललिता दूसरों के घरों में बर्तन मांजकर गुजारा कर रही है। बंटी दिन-रात पिता को खोजने में जुटा हुआ है।

जिस दिन सेवकराम लापता हुआ है, संयोग से उसके दो दिन बाद शहर के एक प्रतिष्ठित व्यवसायी के अपहरण की खबरें भी अखबारों में छपना शुरु हो गईं थीं। गली के नुक्कड पर स्थित चाय की गुमटी पर बंटी नियमित रूप से अखबार पढ़ने जाया करता था। उसने पढ़ा कि व्यवसायी को ढूंढने के लिए शहर की पुलिस युद्ध स्तर पर सक्रिय हो गई है। दस टीमें बनाकर अलग-अलग राज्यों में भेजी जा रही हैं। खुद पुलिस कप्तान एक टीम के साथ जाने वाले हैं। व्यवसायी को वापस लाने के लिए क्लू खोजे जा रहे हैं। आदतन अपराधियों की सूची बनाई जा रही है। पुलिस थानों में हिस्ट्रीशीटर्स की परेड़ करवाई जा रही है। अब बंटी जिस दिन का भी अखबार उठाता, फ्रंट पेज से लेकर अंदर तक के पन्नों में पुलिस की सक्रियता की खबर होती। व्यवसायी को खोजने के लिए की जा रही उठापटक पर फॉलोअप न्यूज़ होती। बंटी सोचने पर मजबूर हो जाता कि क्या कानून, व्यवस्था, पुलिस केवल अमीर और प्रभावशाली लोगों के लिए बनाई गई है। उसे याद आया कि पिता के गुमशुदा होने की सूचना पुलिस में देने के दूसरे दिन ही उसे थाने से फोन आया था। फोन पर हवलदार कह रहा था कि कल थाने आ जाना, कुछ अपराधियों को पकड़ा गया है, देखना कहीं तुम्हारा बाप भी उनमें ना हो। बस फिर तब से ही यही सिलसिला चल रहा है, कभी किसी लाश की पहचान तो कभी किसी अपराधी की परेड़ करने उसे बुलाया जाने लगा। उसके पिता के गुम होने की तो एफआईआर भी नहीं लिखी जा रही थी। कितनी मिन्नतें की थीं उसकी मां ने। लेकिन उसके पिता को खोजने में पुलिस ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई थी। उलटे पुलिसवाले उसकी मां तो ताना मार रहे थे कि कहीं भाग गया होगा तेरा पति। कहीं किसी दूसरी औरत का चक्कर तो नहीं है। दारू पीता था क्या, चोरी-चमारी करके तो नहीं भाग गया? ना जाने कितनी अनर्गल बातें कर रहे थे पुलिसवाले। मां बेचारी बस एक ही वाक्य दोहरा रही थी, नहीं साब, मेरा पति बहुत अच्छा आदमी है। घर से निकलता है, सीधे मजूरी पर जाता है। मजूरी से निकलता है सीधे घर पर आता है। कोई ऐब नहीं है उसमें। ढूंढों ना साब किसी हादसे का शिकार तो नहीं हो गया मेरा घरवाला। मैंने हर जगह ढूंढ लिया, लेकिन कहीं नहीं मिल रहा। कोई उसके बारे में कुछ बता भी नहीं रहा है। बंटी ने भी कहना चाहा कि जहां मेरे पिता काम कर रहे हैं, वहां आए दिन हादसे होते रहते हैं, कहीं सब हमसे कुछ छुपा तो नहीं रहे हैं। लेकिन पुलिसवाले साब को उनकी बातों को कोई तवज्जो नहीं दी। उलटा ये कहकर थाने से भगा दिया कि किसी चोरी-डकैती में पकड़ा गया तो लंबा अंदर जाएगा तेरा घरवाला।

बंटी को याद आया कि पिछली दिवाली में पिता को बोनस मिलने पर वह कितना खुश था। पिता सुखराम ने अपने बेटे की साल भर की गई फरमाइशों में से अधिकांश को एक झटके में पूरा कर दिया था। बंटी को कितना आश्चर्य हुआ था देखकर कि पिता को याद है कि कब उसने उनसे क्या मांगा। कभी नींद में, कभी खेलते हुए, कभी स्कूल से लौटते हुए। वह तो मांग कर भूल भी गया था, लेकिन पिता ना जाने किस डायरी में दर्ज करते जा रहे थे उसकी ख्वाहिशें, फरमाइशें, इच्छाएं। ..और जब उन्हें बोनस के रूप में अतिरिक्त धन मिला तो एक झटके में वो जो भी कर सकते थे, उन्होंने कर डाला। ये पुलिसवाले क्या समझें कि गरीब भी अपने परिवार से उतना ही प्यार करता है, जितना कि कोई अमीर। मेरे पिता मुझसे और मेरी मां से भी बहुत प्यार करते थे। मां के लिए कभी-कभी पान का बीड़ा लगवाकर लाते थे। मैंने कई बार देखा कि कितने प्यार से मां को उन्होंने पान खिलाया था। मां को मीठा पान बहुत पसंद है। लेकिन जबसे पापा खो गए हैं, मां ने तो ढंग से खाना भी नहीं खाया। बस दिन रात घुली जा रही है। उसे याद आ रहा है कि घर के बाहर पड़े सौ के नोट को जब वह उठाकर चहकता हुआ घर के भीतर आया तो पिताजी ने जोर से डपटा था। कभी भी ऊंची आवाज में बात तक ना करने वाले पापा उसदिन कितना गुस्सा हुए थे। ये नोट कहां से लाया तू? मैंने उन्हें बताया कि सड़क पर पड़ा था तो वे बाहर भागे थे ताकि जान सकें कि किसका नोट गिर गया है, ना जाने कौन गरीब परेशान हो रहा होगा? जब उन्हें कोई नहीं मिला, तब भी कई दिनों तक वह नोट पूजा के पाटे पर पड़ा रहा। उसे खर्च करने की हिम्मत कोई नहीं कर रहा था। जिस व्यक्ति का चरित्र मजदूर होते हुए भी इतना ऊंचा हो, पुलिसवाले उसे ढूंढने के बजाए चोर-डकैत साबित करने पर क्यों तुले हैं। वह समझ ही नहीं पा रहा था।

मां से भी तो कितना प्यार था पापा को। मां बताती थी कि उन्होंने मां को ब्याह के पहले देखा तक नहीं था। घरवालों से जो रिश्ता तय कर दिया था, उसमें ही सहमति जता दी थी। विदाई के बाद डरते-डरते मां अपनी ससुराल पहुंची। मन में कई तरह की उलझनों के साथ। पता नहीं पति कैसा दिखता है, उसका रूप-रंग, स्वाभाव, पसंद कैसी होगी। जो भी होगा, नियति मानकर स्वीकार करने की सख्त हिदायत दी थी नानी ने उन्हें। लेकिन जब पिताजी से वो पहली बार मिलीं तो उन्हें लगा कि जैसे तीज के व्रत का फल मिल गया हो उन्हें। पिताजी देखने में भले ही बहुत आकर्षक नहीं थे, लेकिन एक सहज, सरल और मीठे स्वाभाव के धनी थे। पहली मुलाकात में उन्होंने अपनी पत्नी यानि मेरी मां को अपना दोस्त बना लिया।

मां ने उन्हें कहा कि पति पत्नी भी दोस्त होते हैं क्या भला। ये तो मुझे किसी ने नहीं बताया। तो पिताजी जी खिलखिलाकर हंसे। मां सकुचा सी गई कि क्या गलत बोल दिया मैंने। तब पिताजी ने समझाया कि यदि हम दोस्त नहीं बनेंगे तो हम एक दूसरे जल्दी से समझ नहीं सकेंगे। हम केवल एक-दूसरे के प्रति कर्त्तव्य निभाएंगे लेकिन प्रेम की डोरी में कैसे बंधेगे। पिताजी की बातें उसवक्त मां की समझ में भले ही नहीं आईं हो। लेकिन वो बताती हैं कि धीरे-धीरे विवाह के वर्ष बीतने के साथ ही पिताजी की ऊंची सोच को जैसे-जैसे उन्होंने समझा, वे उनके प्रति श्रद्धा के भाव से भरती गईं। वे भले ही गरीब परिवार से ताल्लुक रखते थे, भले ही आठवीं तक ही पढ़ाई की हो, लेकिन उनकी सोच कहीं ऊपर थी। लोग उनके बोल-व्यवहार को देखकर आश्चर्य करते थे, कहते कि तुम तो किसी बड़े खानदान जैसी सोच रखते हो। इतना सुनकर पापा मुस्कुरा देते, कुछ कहते नहीं। दूसरी औरत के बारे में तो वह सपने में भी नहीं सोच सकते थे, और पुलिसवाले कहते हैं कि किसी को लेकर तो नहीं भाग गया। आखिर ये पुलिसवाले ऐसा क्यों सोचते-बोलते हैं। केवल इसलिए कि वो ‘साब’ हैं, कुछ भी बोलने का अधिकार रखते हैं।

पच्चीस दिन बीत चुके हैं लेकिन सुखराम का कोई अता-पता नहीं चला है। वहीं 23 दिन पहले गायब हुए व्यवसायी को पुलिस सकुशल खोज लाई है। आज के अखबार पुलिस की वाहवाही से रंगे पड़े हैं। व्यवसायी को उत्तरप्रदेश के किसी जिले में अपहरणकर्ताओं ने बंधक बनाकर रखा था। वे फिरौती वसूल पाते, उसके पहले ही अति सक्रिय, संवेदनशील, मुस्तैद पुलिस उसे रिहा करवा लाई। अखबार में बताया गया है कि पुलिस के संवेदनशील, साहसी, सक्रिय, दिमागदार जवान सम्मानित किए जाएंगे। उनमें से कुछ को आउट ऑफ टर्म प्रमोशन भी दिया जा रहा है। समाचार में लिखा गया है कि पुलिस कप्तान का दावा है कि हमारे शहर में पुलिस सदैव हर नागरिक की सेवा में तत्पर है। अमीर हो या गरीब, छोटा या बड़ा किसी को किसी से कोई खतरा नहीं है। हम जनसेवा के लिए प्रतिबद्ध हैं। ये भी बताया गया है कि पिछले एक माह से शहर में कोई बड़ी घटना नहीं हुई है। सब अमन-चैन की नींद सो रहे हैं। समाचार पढ़ते-पढ़ते बंटी समझ नहीं पा रहा है कि वह इस शहर का, इस सुव्यवस्था का हिस्सा है भी या नहीं। या उसके पिता और उस जैसे लोग इस व्यवस्था में गिने ही नहीं जाते। उसे पक्का यकीन हो गया है उसके पिता अब शायद कभी वापस नहीं आएंगे क्योंकि ना कभी किसी अखबार में उसके पिता के गुम होने की खबर आई ना ही पुलिस ने कभी उसके पिता को खोजने के लिए कोई टीम बनाई। अब बंटी खुद अपने आप को इस व्यवस्था में गुमशुदा महसूस कर रहा है। वह सुन भी नहीं पा रहा है कि उसकी मां ललिता उसे पुकार रही है कि चल थाने चलना है ना लाशों की शिनाख्त करने।

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