120 साल पहले छत्तीसगढ़ी के पहले नाटक के लेखक, पुरातत्वविद पं लोचन पांडे….

 {किश्त 250}

छग की महान साहित्यिक विभूतियों में पंडित लोचन प्रसाद पांडे का नाम अमिट अक्षरों में दर्ज है।उनकेलिखे 120 साल पुराने नाटक ‘कलिकाल ‘ को छत्तीसगढ़ी का पहला नाटक माना जाता है।छत्तीसगढ़ी भाषा और साहित्य को समृद्ध बनाने में उनका ऐतिहासिक योगदान रहा। साहित्यकार तो थे ही, साथ ही इतिहास कार और पुरातत्वविद भी थे।शिक्षक़,कुशल प्रशासक़, समाजसेवी भी थे। खड़ी बोली हिन्दी तथा देवनागरी लिपि के प्रचार-प्रसार में अपना सर्वस्व अर्पित करने वालों में पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय का नाम श्रद्धापूर्वक लिया जाता है। उनका जन्म जांजगीर-चांपा जिले की धार्मिक नगरी चन्द्रपुर के निकट स्थित ग्राम बालपुर में 4 जनवरी 1887 को हुआ था।पिता पं.चिंतामणि माता देवहुति देवी थीं।वे पद्मश्री पं. मुकुटधर पाण्डेय के अग्रज तथा पुरुषोत्तम पाण्डेय के अनुज थे।लोचन प्रसाद की प्रारंभिक शिक्षा गृहग्राम बालपुर में ही संपन्न हुई। 1898 में प्रायमरी,19 02 में सम्बलपुर हाईस्कूल से मिडिल स्कूल की परीक्षा प्रथम श्रेणी से पास की थी। 1905 में कलकत्ता विश्व विद्यालय से प्रवेषिका पास कर उच्च शिक्षा प्राप्त करने सेंट्रल हिन्दू कॉलेज,काशी गये थे। यहीं उनका परिचय एनीबीसेंट तथा अयोध्या सिंह उपाध्याय से हुआ। वें शिक्षा पूरी नहीं कर पाए क्योंकि उनकी दादी उनको अकेले नहीं छोड़ना चाहती थीं। वे घर लौट आए और घर में ही ऐसी शिक्षा प्राप्त की कि जी शायद ही किसी विद्यालय से प्राप्त कर पाते, उन्होंने हिन्दी,अंग्रेजी, उर्दू संस्कृत, उड़िया, बांग्ला, छत्तीसगढ़ी भाषा सीख ली बल्कि इन सभी भाषाओं पर अधिकारपूर्वक लिखने भी लगे। अग्रज पुरुषोत्तम प्रसाद तथा मामा अनंतराम की प्रेरणा, प्रोत्साहन से लोचन प्रसाद ने 1903 में लिखना शुरु कर दिया था। बालकृष्ण भट्ट के संपादन में निक़ली पत्रिका हिन्दी प्रदीप में पहली कविता 19 04 में प्रकाशित हुई। ‘सर स्वती’ में पाण्डेजी की एक छोटी -सी कविता छपीइसी पत्रिका में छत्तीसगढ़ी नाटक ‘कलिकाल’ के दो अंक छपे। इसे छत्तीसगढ़ी का प्रथम नाटक होने का गौरव प्राप्त है।1906 में उनके प्रथम उपन्यास ‘दो मित्र’ का प्रकाशन हुआ। यह छग के साहित्य में लिखित प्रथम उपन्यास माना जाता है।1909 में प्रवासी, नीति कविता और बालिका विनोद नामक तीन किताबें छपीं इसीसाल नाग पुर से प्रकाशित ‘मारवाड़ी’ पत्रिका का संपादन भी किया।1910 में लोचन प्रसाद पाण्डे ने ‘कविता- कुसुम माला’ काव्य-संग्रह का संपादन किया। इसमें हिन्दी साहित्य के लगभग सभी प्रमुख कवियों की रच नाएँ सम्मिलित की, शासन ने माध्यमिक शालाओं के पाठ्यक्रम में भी स्वीकृत किया था। उनकी लिखी पुस्तक ‘रघुवंशसार'(संस्कृत से अनुदित) पटना,नागपुर विश्वविद्यालय में पाठ्य पुस्तक के रुप में मान्यता दी गई थी। लोचन प्रसाद पाण्डेय को आधुनिक छत्ती सगढ़ी का प्रथम कवि भी कहा जाता है।1904 में छत्तीसगढ़ी की पहली कविता उन्होंने ही लिखी थी, जिसकी प्रारंभिक पंक्तियाँ हैं-
“जयति जय-जय छत्तीसगढ़ देस,
जनम भूमि,
सुन्दर सुख खान.’’

मात्र 25 वर्ष की में ही पं. लोचन पाण्डेय,गद्य-पद्य, संपादन, अनुवाद, नाटक, उपन्यास साहित्य में अपनी छाप छोड़ चुके थे। द्विवेदी युग के महान साहित्यकार महा वीर प्रसाद द्विवेदी,पं. माधव राव सप्रे,श्याम सुंदर दास कामता प्रसाद गुरु, अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध के साथ उनका नाम भी बड़े ही सम्मान के साथ लिया जाता थाउनकी रचनाएँ सरस्वती,इन्दु, कमला,आनंद, कादम्बिनी, हिन्दी प्रदीप,भारतमित्र पाटलीपुत्र,देवनागर, प्रभा, सुधाश्री शारदा, हितका रिणी,विशाल भारत,माधुरी, प्रताप जैसे सभी श्रेष्ठ पत्र- पत्रिकाओं में नियमित रुप से छपती थीं।पं. लोचन पाण्डेय की प्रमुख कृतियाँ प्रवासी,नीति कविता, बाल विनोद, कविता-कुसुममाला माधव मंजरी, मेवाड़ गाथा, पद्म पुष्पांजलि, कृषकबाल सभा काफी प्रसिद्ध हुई। भतृहरि शतक तथा रघुवंश सार संस्कृत से अनुदित हैं, जबकि रोगीरोदन,महानदी उड़िया भाषा की रचनाएँ हैं। ‘महानदी’ खण्ड काव्य पर वामण्डा नरेश सच्चिदा नंद त्रिभुवनदेव ने उन्हें 19 12 में काव्य-विनोद की उपाधि दी थी।हिन्दी में ‘प्रगीति’ शब्द का प्रथम प्रयोग पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय ने ही किया था। 1910 में ‘कविता कुसुम माला’ की भूमिका में अंग्रेजी भाषा के ‘लिरिक’ के पर्याय रूप में ‘प्रगीति’ का प्रयोग किया था। खड़ी बोली हिन्दी में पहली बार ‘सॉनेट’ कविता लिखी जो बहुत लोकप्रिय हुई, पाण्डे जी एक कुशल शिक्षक थे। उन्होंने पहले बालपुर, बाद में नटवर स्कूल, रायगढ़ में अध्यापन किया।1912 तब रायगढ़ राजदरबार के प्राय वेट सेक्रेटरी की हैसियत से रीवाँ दरबार भेजा गया,बाद में उन्हें चन्द्रपुर जमींदारी का ऑनरेरी मजिस्ट्रेट भी नियुक्त किया गया। लोचन प्रसाद को उनकी उत्कृष्ट साहित्यिक सेवाओं के लिए1921 में जबलपुर में आयोजित हिन्दी साहित्य सम्मेलन के चतुर्थ अधि वेशन में सभापति चुना गया। 1939 में रायपुर में संपन्न प्रांतीय इतिहास परिषद में सभापति चुने गए थे। अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के मेरठ अधिवेशन में ‘साहित्य वाचस्पति’ की उपाधि दी गई। पं. लोचन पाण्डेय न केवल एक अच्छे साहित्य कार थे, उच्च कोटि के पुरातत्ववेत्ता भी थे।छग की प्राचीन कला साहित्य और संस्कृति के उत्थान के लिए 1940 में ही महाकौशल हिस्टोरिकल सोसायटी की स्थापना की थी। वे 40वर्षों तक मंत्री रह कर इतिहास तथा पुरातत्व की सेवा करते रहे। पुराण कालीन अपीलक सिक्का, महा भारत में उल्लेखित ऋषभ तीर्थ की खोज, सिंघनपुर, विक्रमखोल, कबरा पहाड़ के 4 हजार वर्षपुराने आदि मानव द्वारा निर्मित शैल चित्रों को अंधकार के समुद्र तल से निकाल इतिहास की खुली हथेलियों पर रख दिया।अनेक प्राचीन मंदिरों, स्मारकों का पता लगाया तथा प्राचीन स्थापत्य कला, मूर्तिकला,संस्कृति से परि चित कराया।लोचन प्रसाद पाण्डेय मप्र साहित्य अका दमी, पाठ्यपुस्तक समिति के भी वर्षों सदस्य रहे।वे महान समाज सुधारक भी थे। किसानों और गरीबों की दुर्दषा सेअत्यंत व्यथित थे। उन्हीं की प्रेरणा से उनके अनुज मुरलीधर पाण्डेय ने ग्राम सहाय समिति गठित की। गाँव के प्रत्येक किसान को पात्र में रोज एक मुट्ठी अनाज डालने को कहा गया। इसे जरुरतमंदों में बाँट दिया जाता। स्वतंत्रता के उपरांत 1956 में राज्य पुनर्गठन के समय लोचन प्रसाद पाण्डेय ने अंचल के हितों के लिए उग्रसंघर्ष किया। उन्हीं की बदौलत चन्द्रपुर क्षेत्र आज संबलपुर जिले में न होकर जांजगीर -चांपा छग में है। चांपा में कुष्ठ आश्रम को प्रयासों से शासकीय आर्थिक सहयोग मिला।लोचन प्रसाद पाण्डेय का 73 वर्ष की आयु में 18 नवम्बर 1959 को निधन हो गया।

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