(किश्त 245)
छत्तीसगढ़ में कई शिव के प्राचीन व अद्भुत शिवालय मौजूद है। जो अपने आप में पौराणिक, प्राचीनकाल के इतिहास को समेटे हैं।13 वीँ शताब्दी में बना छ: मासी देवबलौदा शिव मंदिर है। दुर्ग जिले में कई प्राचीन काल में बनाए गए मंदिरों से उनके काल की स्थापत्य कला को जाना जा सकता है, ऐसे कई देवी-देवताओं के मंदिर हैं,राजाओं द्वारा स्थापित शिव मंदिर भी शामिल है।छग के खजुराहोँ के रूप में कबीरधाम जिले के भोरमदेव शिव मंदिर के बाद रायपुर-दुर्ग के बीच भिलाई-3,चरोदा रेल्वेलाइन के किनारे बसे देवबलौदा गांव में 13 शताब्दी का ऐतिहासिक शिव मंदिर कई रहस्यों को साथ लिए हुए है। यह शिव मंदिर आश्चर्य और रहस्य से भरा है। यहां नवरंग मंडप नागर शैली में बना देवबलौदा का प्राचीन शिव मंदिर अपने आप में खास है। इस मंडप में 10 स्तम्भ हैं जिनमे शैव द्वार पाल के रूप में आकृतियां उकेरी गई है। इस मंडप की छत भी पत्थरों से बनी है। पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अनुसार जिले के देवबलौदा में शिवमंदिर का निर्माण कलचुरी राजाओं ने 13 वीं शताब्दी में कराया। मंदिर की बनावट काफी भव्य है। दीवारों पर नक्काशी भी उत्कृष्ट व आश्चर्यजनक है। मंदिर की दीवारों पर पशु, पक्षी,पेड़-पौधे व रामायण के किरदारों के साथ-साथ नित्य संगीत को पत्थरों पर उकेरा गया है।मंदिर के बरा मदे को बड़े-बड़े पत्थरों के माध्यम से बनाया गया है। वही गर्भगृह में 6 फिट नीचे सीड़ियों के माध्यम से नीचे उतरना पड़ता है।शिवजी के साथ ही अन्य देवी देवता ओं की हैं मूर्तियां। मंदिर के गर्भगृह में प्राचीन शिवलिंग विराजमान है,जिसकी पूजा पाठ प्रतिदिन विधि विधान से की जाती है। मंदिर के अंदर शंकर के साथ-साथ जगन्नाथ, पार्वती समेत कई देवी-देवताओं के मूर्तियां बनी हुई है। वही मंदिर के मुख्यद्वार पर गणेश की दो भव्य प्रतिमा भी रखी गई है। मंदिर के सामने शंकर की सवारी नंदी विराजमान है,जिसे पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित किया गया है। इसके साथ ही मंदिर के सामने पीपल पेड़ के नीचे खुदाई से मिली कई खंडित प्रतिमाओं को संरक्षित कर रखा गया है।मूर्तियों से कल चुरी कालीन स्थापत्य कला की पहचान की जा सकती है। कल्चुरी कालीन मूर्ति कला,धार्मिक मान्यताओं, स्थापत्य कला की जीवंत गाथा के रूप में आज भी प्रतिमाएं उसकाल की जान कारी दे रही है मंदिर को लेकर कई कहानियां भी प्रचलित हैं, पुरातत्व सर्वे क्षण के सूत्र बताते हैं कि मंदिर के बारे में मान्यता यह भी है कि जब शिल्प कार मंदिर को बना रहा था वह इतना लीन हो चुका था कि उसे अपने कपड़े तक का होश नहीं रहता था,दिन रात काम करते-करते वह नग्न अवस्था में पहुंच चुका था। उस शिल्पकार के लिए एक दिन पत्नी की जगह बहन भोजन लेकर आई थी जब शिल्पी ने अपनी बहन को सामने देखा तो दोनों ही शर्मिंदा हो गए। शिल्पी ने खुद को छुपाने मंदिर के ऊपर से ही कुंड में छलांग लगा दी। बहन ने देखा कि भाई कुंड में कूद गया तो इस गम में उसने बगल के तालाब में कूद कर प्राण त्याग दिये।आज भी कुंड और तालाब दोनों मौजूद है, और तालाब का नाम भी करसा तालाब पड़ गया क्योंकि जब वह अपने भाई के लिए भोजन लेकर आई थी,भोजन के साथ सिर पर पानी का कलश था।तालाब के बीचोँ बीच कलशनुमा पत्थर आज भी मौजूद है।मंदिर के निर्माण से जुड़ी एक कहानी यह भी है कि जब इस मंदिर का निर्माण किया जा रहा था। उस दौरान छह महीने तक लगा तार रात ही थी। इसलिये इसे 6 मासी मंदिर के रूप में जाना जाता है,छ:मासी मंदिर की कहानी यह भी है कि छह मासी रात बीत जाने के बाद दिन हो गया। जिसके कारण इसके ऊपर गुंबद के निर्माण को अधूरा छोड़ दिया गया..!राजा ने इस मंदिर को छह मासी रात में पूर्ण करने का जिम्मा शिल्पकार को दिया, मंदिर के अंदर करीब 3 फीट नीचे गर्भगृह में स्थापित शिव लिंग और मंदिर के बाहर बने कुंड को लेकर प्रचलित लोक कथाओं के बीच यह मंदिर अपने आप में खास है। बताया जाता है, मंदिर को बनाने वाला शिल्पी इसे अधूरा छोड़कर ही चला गया था, इसलिए इसका गुंबद ही नहीं बन पाया…! दूसरे कुंए के अंदर एक गुप्त सुरंग है। जो सीधे आरंग में निकलती है। गुप्त सुरंग से शिल्पकार मन्दिर अधूरा छोड़ आरंग पहुंच गया था। आरंग पहुंचने के बाद श्रापवश शिल्पकार पत्थर का हो गया जो आज आरंग में देखा जा सकता है।मंदिर के किनारे कुंड के बारे में लोगों का कहना है कि इस कुंड के अंदर एक गुप्त सुरंग है, जो आरंग के मंदिर के पास निकलती है। यहां मौजूद कुंड के भीतर दो कुएं हैं। जिसमें से एक कुंए का सम्बंध पाताल लोक से है! जिसके कारण यहां का पानी कभी नहीं सूखता। वह शिल्पी जब इस कुंड में कूदा तब उसे सुरंग मिली और उसके सहारे वह सीधे आरंग पहुंच गया। बताया जाता है कि आरंग में पहुंचकर पत्थर का हो गया और आज भी वह पत्थर की प्रतिमा वहां मौजूद है। इस कुंड में 23 सीढिय़ा है और उसके बाद दो कुएं है। एक पातालतोड़ कुआं है जिससे लगातार पानी निकलता है।