{किश्त 222 }
अवधूत भगवान राम बिहार प्रांत के भोजपुर जिले के गुण्डी ग्राम में बैजनाथसिंह के पुत्र के रूप में भाद्रशुक्ल सप्तमी,विक्रमसंवत् 1994 को जन्म लिया। जन्म को उनके पिता ने भगवान का अवतरण समझकर ही उन्हें ‘भगवान’ नाम दिया। उनकी प्रवृत्तियां बाल्यकाल से ही असामान्य थी, 7 वर्ष की आयु में घर का परित्याग कर भिक्षा मांग कर जीवन यापन करने लगे, 15 वर्ष की अल्पायु में ही महरौड़ा श्मशान में ही अघोरसिध्दि प्राप्त की।उन्होंने अघोरपीठ क्रीं कुंड वाराणसी के पीठा धीश्वर बाबा रामेश्वरराम से दीक्षा ली। जशपुर के राजा को बनारस में श्मशान में मिल थे। उन्होंने बालक भगवान से जशपुर चलने की प्रार्थना की। पहले तो जशपुर जाने से इंकार कर दिया।लेकिन राजा के बहुत अनुनय-विनय करने पर जशपुर चलने को राजी हो गये और जशपुर रियासत के नारायणपुर में सर्वप्रथम आश्रम बनाया। प्राचीन काल में औघड़ संतों ने देश, समाज के सामने जो उग्र रूप प्रस्तुत किया था इससे लोगों के मन में अघोरपंथ के प्रति अनेक भ्रांतियां थीँ जिससे भय का वातावरण निर्मित हो गया था। अवधूत भगवान राम ने समाज के सामने ऐसा आदर्श प्रस्तुत किया,उससे भ्रांतियां दूर हुई साथ ही उनके अनुयायी होते गये। उनके सत्संग से मन के विकार दूर हो जाते और मन को शांति मिलती थी।जीवन के आध्यात्मिक संग्रह को दलित,पीड़ित और शोषित मानवता को समर्पित कर दिया।उनके आशीर्वाद से जशपुर राज वंश चला।देश के पूर्व पीएम इंदिरागांधी,चंद्रशेखर और राजीव गांधीअनुयायी भी थे।आगे चलकर जशपुर के नारायणपुर,गमरिया और सोगड़ा में अपना आश्रम बनाया। 1961में ही’श्री सर्वेश्वरी समूह’,1962 में ‘अवधूत भगवान राम कुष्ठ आश्रम’ की स्थापना की। वे अघोरेश्वर थे, हमेशा कहते थे-‘औघड़ वह भूना हुआ बीज है जो कभी अकुंरित नहीं होता। मैं किसी देव का अवतार नहीं हूँ। जितना भी जानते हैं उसी पर अमल करें, तो बहुत अच्छा होगा।’ इसी उद्धोष के साथ उन्होंने 29 नवंबर 1992 को महा निर्वाण किया।अघोरेश्वर के सबसे प्रिय शिष्य गुरुपद संभवराम ही थे और वे ही उनके बताये अघोरदर्शन को भी अब आगे बढ़ा रहे हैं।महाराज यशोवर्धन सिंह की 1982 में दीक्षा के बाद अघोरेश्वर भगवान राम ने ही गुरुपद संभवराम नाम दिया, उन्होंने कठोर तप और साधना भी शुरू की अघोरेश्वर भगवान राम, साधना की गूढ़ प्रक्रियाओं जीवन के आदर्शों,सामा जिक आदर्शों के विषय में अपने शिष्यों,भक्तों को शिक्षा देते थे, तब गुरुपद संभवराम को कभी संभव, कभी संभव साधक, कभी सौगत उपासक,तो कभी मुड़िया साधु के नाम से पुकारते थे।गुरुपद संभव राम,अघोरेश्वर भगवान राम के प्रिय शिष्यों में रहे,उनकी ही अपरिमित कृपा दृष्टि से अघोरदर्शन परम्परा और दृष्टि से आपने ज्ञान के भंडार को परिपूरित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी और अवधूत पद पर प्रतिष्ठित हुये।