{किश्त 162}
छत्तीसगढ़ का हृदय कहे जाने वाले पुरानीबस्ती में स्थित है कंकाली तालाब, जहां कंकाली माता का भव्य मंदिर भी स्थित है। तंत्र-मंत्र करने वाले नागा साधूओं ने यहां पर कंकाली माता के मंदिर और शिव लिंग का निर्माण करवाया था,छत्तीसगढ़ की राजधानी के पुरानी बस्ती-ब्राह्मणपारा क्षेत्र में प्रतिष्ठित कंकाली मठ,कंकाली मंदिर से लग भग चार शतक वर्ष पूर्व का है।13वीं शताब्दी में दक्षिण भारत से यात्रा पर आये ‘नागा साधुओं’ ने तांत्रिक साधना के लिये तब के शम शान घाट पर इस मठ की स्थापना की थी।उस समय यह पूरा क्षेत्र सुनसान,घनी झाडियों से युक्त बीहड था। वर्तमान कंकाली तालाब काअस्तित्व बहुत छोटा सा शमशान के मध्य में दाह- संस्कार के बाद अस्थि विसर्जित करने में प्रयोग किया जाता था,अस्थि कंकाल विसर्जित करने के लिए प्रयोग होने के कारण ही ‘कंकाली’ नाम पड़ा।इस तालाब के मध्य चार स्तंभोँ पर चबूतरा बनाकर उसमें शमशानवासी भगवान भूत भावन की स्थापना की गई थी।इस स्थल को उपयुक्त समझकर नागा साधुओं के दल के कुछ सदस्यों ने वर्त मान कंकाली मठ के पास (कुछ नागा साधुओ ने ब्रम्ह पुरी के दत्तात्रेय मंदिर व बिरंची नारायण मंदिर में भी) अपनी साधना के लिए उपयुक्त मानकर अस्थायी निवास बनाया तथा साधना के लिए देवी की स्थापना किया था । नागा साधुओं की जीवित समाधियां अभी भी इस मठ में विद्यमान है जिनके ऊपर एक-एक शिव लिंग स्थापित है।लगभग 400 वर्ष बाद 17 वीं शताब्दी में कृपालु गिरि इस कंकाली मठ केपहले महंत हुए बाद में इनके शिष्य भभुता गिरि, बाद में शिष्य शंकर गिरि महंत बने, ये तीनों महंत निहंगसन्यासी थे।लेकिन बाद में महंत शंकर गिरि ने निहंग प्रथा समाप्त कर शिष्य सोमार गिरि का विवाह कर गृहस्थ महँत परम्परा का श्रीगणेश किया । प्रथम गृहस्थ महँत श्रीसोमार गिरि को कोई संतान नहीं हुई तब उन्होंने अपने शिष्य शम्भु गिरि को महँत बनाया।शम्भु गिरि के प्रपौत्र श्री रामेश्वर गिरि के पुत्र गजेन्द्रगिरी, हरभूषण गिरि गोस्वामी में कंकाली मठ के महँत व सर्वराकर बने। कंकाली मठ के प्रथम निहंग महन्त कृपालु गिरि को माता ने स्वप्न में दर्शन देकर कहा कि मुझे इस मठ से हटाकर तालाब केकिनारे टीले के ऊपर स्थापित करो देवी की आज्ञा को शिरो धार्य कर वर्तमान प्रसिद्ध कंकालीदेवी मंदिर का निर्माण कर हरियाणा से मंगाई अष्टभुजी श्रीविग्रह को प्रतिष्ठित किया।मंदिर के निर्माण प्राण–प्रतिष्ठा के बाद महन्त कृपालु गिरि को कंकाली देवी ने साक्षात कन्या के रुप में दर्शन दिया लेकिन महँत पहचान नहीं पाये और उनका उपहास कर दिया।जिससे कन्या रुपी देवी एकदम अदृश्य हो गयी तब महँत को गलती का एहसास हुआ इसी के पश्चाताप के बाद महँत कृपालु गिरि कंकाली मंदिर के बाजू में जीवित समाधी ले ली ,जो अभी भी विद्य मान है। यह मठ पूरे वर्ष में एक बार दशहरा के दिन खुलता है। प्रात:काल से लेकर पूरे दिन भर रात्रि 12 बजे तक पूजा-पाठ दर्शन होता है। मध्यरात्रि के पश्चात पुन: वर्ष भर के लिए बंद कर दिया जाता है, कंकाली देवी के स्थापना के समय से ही यहाँ बकरों की बलि दी जाती थी। जिसे सन1976 में तात्कालिक महँत द्वारा बलिप्रथा को बंद कर श्री फल (नारियल) फोडने की शुरुआत कीगई। सन 1965 तथा 1998 में इस प्राचीन कंकाली तालाब की सफाई में तालाब के दक्षिण–पूर्व कोने में 4 फीट चौडी व आठ फीट उंची सुरंग का द्वार निकला था कुछ समय बाद इसी सुरंग का दूसरा हिस्सा बुढेश्वर मंदिर के सामने एक बडे नाले के पुलिया निर्माण के समय भी देखा गया था।कंकाली तालाब में पहले इतना अधिक मृतक अस्थि कंकाल का विसर्जन किया गया कि हडडी के फास्फो रस का अंश घुलते रहने के कारण इस तालाब के पानी में स्नान करने पर चर्मरोग को दूर करने का प्रभाव आ गया। ऐसा विश्वास अभी भी श्रद्धालुओं के मन में है और दूर-दूर से चर्मरोगी तालाब में स्नान कर,मां कंकाली देवी की कृपा से स्वस्थ हो जाते है…!