बंगाल विभाजन के विरुद्ध हो रहे आन्दोलन के दिनों में छह जुलाई, 1905 को नागपुर में कमल नामक बालिका का जन्म हुआ। कमल के घर में देशभक्ति का वातावरण था। उनके माता-पिता भास्कर राव दाते, एक सरकारी कर्मचारी और यशोदाबाई एक गृहिणी थीं। ब्रिटिश शासन के उन दिनों में, किसी सरकारी कर्मचारी के घर में लोकमान्य तिलक द्वारा संपादित ‘केसरी’ जैसे समाचार पत्रों को खरीदना और पढ़ना देशद्रोह माना जाता था। लेकिन उनकी माँ अखबार खरीदती थीं और सभी महिलाओं को एक साथ पढ़ने के लिए बुलाती थीं। इस प्रकार लक्ष्मीबाई का मातृभूमि के प्रति गहरा प्रेम, संगठन क्षमता, निडरता और निडर भावना उन्हें उनके माता-पिता से मिली।
जब गायों को वध से बचाने के लिए अभियान चलाया गया तो युवा कमल मंदिर के पुजारी और ‘दाई’ (नानी) के साथ इस पवित्र कार्य में शामिल हुईं। इस अभियान ने उन्हें बोलने की शक्ति, विनम्रता का मूल्य और अच्छे उद्देश्य की सेवा करते समय अपमान और नकारात्मकता को सहन करने की क्षमता सिखाई।
प्लेग के प्रकोप के समय उन्होंने जाति और धर्म के बावजूद बीमार और ज़रूरतमंदों की सेवा करने में अपने माता-पिता और दाई की मदद की। उनके पिता बहुत मददगार थे और उन्होंने प्लेग के उन पीड़ितों का अंतिम संस्कार भी किया जिन्हें दूसरों ने छूने से मना कर दिया था। इन सभी अनुभवों ने उन्हें धीरज और धैर्य के मूल्य सिखाए।
वे वर्धा के प्रसिद्ध केलकर परिवार के जाने-माने वकील पुरुषोत्तम राव की पत्नी बनीं। विवाह के बाद परंपरा के अनुसार उनका नाम बदलकर लक्ष्मी रख दिया गया। विवाह के बाद भी वे सामाजिक कार्यों में भाग लेती रहीं।
अगले 12 वर्ष में लक्ष्मीबाई ने छह पुत्रों को जन्म दिया। वे एक आदर्श व जागरूक गृहिणी थीं। मायके से प्राप्त संस्कारों का उन्होंने गृहस्थ जीवन में पूर्णतः पालन किया। उनके घर में स्वदेशी वस्तुएँ ही आती थीं। अपनी कन्याओं के लिए वे घर पर एक शिक्षक बुलाती थीं। वहीं से उनके मन में कन्या शिक्षा की भावना जन्मी और उन्होंने एक बालिका विद्यालय खोल दिया।
लक्ष्मीबाई को एहसास हुआ कि वर्धा में लड़कियों के लिए कोई स्कूल नहीं था जहाँ वे अपनी बेटी को दाखिला दिला सकें, इसलिए उन्होंने “लड़कियों के स्कूल” की नींव रखने में पहला कदम उठाया और इस तरह वर्धा में महिला साक्षरता का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने देखभाल करने वाले और समर्पित शिक्षकों की तलाश की और उन्हें अपने घर में रहने की जगह दी और उन्हें अपने परिवार के सदस्यों की तरह माना। उन्होंने लड़कियों को साइकिल चलाना और तैराकी सीखने के लिए प्रोत्साहित किया।
रूढ़िग्रस्त समाज से टक्कर लेकर उन्होंने घर में हरिजन नौकर रखे। गांधी जी की प्रेरणा से उन्होंने घर में चरखा मँगाया। एक बार जब गांधी जी ने एक सभा में दान की अपील की, तो लक्ष्मीबाई ने अपनी सोने की जंजीर ही दान कर दी।
1932 में उनके पति का देहान्त हो गया। अब अपने बच्चों के साथ बाल विधवा ननद का दायित्व भी उन पर आ गया। लक्ष्मीबाई ने घर के दो कमरे किराये पर उठा दिये। इससे आर्थिक समस्या कुछ हल हुई। इन्हीं दिनों उनके बेटों ने संघ की शाखा पर जाना शुरू किया। उनके विचार और व्यवहार में आये परिवर्तन से लक्ष्मीबाई के मन में संघ के प्रति आकर्षण जगा और उन्होंने संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार से भेंट की।
डा. हेडगेवार ने उन्हें बताया कि संघ में स्त्रियाँ नहीं आतीं। तब उन्होंने 1936 में स्त्रियों के लिए ‘राष्ट्र सेविका समिति’ नामक एक नया संगठन प्रारम्भ किया। समिति के कार्यविस्तार के साथ ही लक्ष्मीबाई ने नारियों के हृदय में श्रद्धा का स्थान बना लिया। सब उन्हें ‘वन्दनीया मौसीजी’ कहने लगे। आगामी दस साल के निरन्तर प्रवास से समिति के कार्य का अनेक प्रान्तों में विस्तार हुआ।
1945 में समिति का पहला राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ। देश की स्वतन्त्रता एवं विभाजन से एक दिन पूर्व वे कराची, सिन्ध में थीं। उन्होंने सेविकाओं से हर परिस्थिति का मुकाबला करने और अपनी पवित्रता बनाये रखने को कहा। उन्होंने हिन्दू परिवारों के सुरक्षित भारत पहुँचने के प्रबन्ध भी किये।
मौसीजी स्त्रियों के लिए जीजाबाई के मातृत्व, अहल्याबाई के कर्तृत्व तथा लक्ष्मीबाई के नेतृत्व को आदर्श मानती थीं। उन्होंने अपने जीवनकाल में बाल मन्दिर, भजन मण्डली, योगाभ्यास केन्द्र, बालिका छात्रावास आदि अनेक प्रकल्प प्रारम्भ किये। वे रामायण पर बहुत सुन्दर प्रवचन देतीं थीं। उनसे होने वाली आय से उन्होंने अनेक स्थानों पर समिति के कार्यालय बनवाये।
मौसीजी ने विभिन्न स्वास्थ्य चिकित्सकों और डॉक्टरों से परामर्श किया और महिलाओं की ज़रूरतों के हिसाब से फिटनेस कार्यक्रम को फिर से डिज़ाइन किया। योगासन, सूर्यनमस्कार को शामिल किया गया और इतिहास की महान महिलाओं की प्रेरक कहानियों को संकलित किया गया और प्रार्थना सभाओं के दौरान सुनाया गया। महिलाओं के शारीरिक और मानसिक विकास के विशेषज्ञ मार्गदर्शन और प्रशिक्षण के लिए उन्होंने सेविकाओं को संबोधित करने के लिए कई प्रतिष्ठित हस्तियों और डॉक्टरों को आमंत्रित किया।
उन्होंने मराठी में ‘सेविका’ नामक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया, जो अब कई भाषाओं में ‘राष्ट्र सेविका’ के रूप में प्रकाशित होती है। उन्होंने महिलाओं की प्राकृतिक प्रतिभा को विकसित करने के लिए व्यावसायिक पाठ्यक्रम, प्रशिक्षण कार्यक्रम और अल्पकालिक पाठ्यक्रमों के साथ गृहिणी विद्यालय की स्थापना की और भारत की गौरवशाली संस्कृति के आधार पर महिलाओं की शिक्षा को पुनर्गठित करने के लिए भारतीय श्रीविद्या निकेतन की स्थापना की।
उन्होंने आठ भुजाओं वाली देवी शक्ति की पूजा की प्रथा शुरू की, जिनमें से प्रत्येक में क्रमशः कमल, भगवद गीता, भगवा ध्वज, अग्नि कुंड, घंटी, तलवार और मालाएँ थीं और विभिन्न केंद्रों में उनकी मूर्तियाँ स्थापित कीं। उन्होंने महिलाओं की संगीत और भक्ति प्रतिभा को प्रोत्साहित करने के लिए भजन मंडलों का गठन किया और उन्हें रानी लक्ष्मीबाई और जीजामाता जैसी महान महिलाओं की उपलब्धियों को काव्यात्मक रूप में रचने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने शिवाजी के संघर्ष, स्वामी विवेकानंद के आह्वान जैसे प्रेरक विषयों पर प्रदर्शनियाँ आयोजित कीं और कलाकारों को अपने चित्रों के माध्यम से सामाजिक पुनर्जागरण और जनता के उत्थान में योगदान देने के लिए आमंत्रित किया। उन्होंने महान महिला नेताओं की शताब्दी मनाई और हर बैठक में वंदे मातरम गाकर मातृभूमि का सम्मान करने की परंपरा शुरू की। उन्होंने नागपुर में देवी अहिल्या मंदिर, वर्धा में अष्टभुजा मंदिर और कई अन्य मंदिरों का निर्माण कराया।
मौसी जी का शांत, पवित्र तेजस्वी जीवन 27 नवम्बर 1978, कार्तिक (मार्गशीर्ष) कृष्ण द्वादशी, युगाब्द 5080 को पंचत्व में विलीन हो गया। देह नष्ट हुई, कीर्ति, प्रेरणा अमर है, आगे भी रहेगी।