(किश्त105)
छग के राजनांदगांव जिले के डोंगरगढ़ में स्थित है मां बम्लेश्वरी का भव्य मंदिर। राज्य की ऊंची चोटी पर विराजमान मां बम्लेश्वरी का इतिहास काफी पुराना है।वै साल भर यहां भक्तों का रेला लगा रहता है।लगभग दो हजार साल पहले ही माधवानल-कामकंदला की प्रेमकहानी से महकने वाली कामाख्या नगरी में नवरात्रि में अलग ही दृश्य होता है।पहाड़ों से घिरे होने से इसे पहले डोंगरी अब डोंगरगढ़ के नाम से जाना जाता है।ऊंचीचोटी पर विराजित बगलामुखी बम्लेश्वरी देवी का मंदिर प्रदेश में ही नहीं देश की आस्था का केन्द्र बना हुआ है।
इतिहास……
डोंगरगढ़ के इतिहास में कामकंदला-माधवानल की प्रेमकहानी लोकप्रिय है।लग भग ढाई हजार वर्ष पूर्व कामाख्या नगरी में राजा वीरसेन का शासन था।वे नि:संतान थे।संतान की कामना से भगवती दुर्गा औरशिवजी की उपासना की।उन्हें एक साल केअंदर पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई।वीर सेन ने पुत्र का नाम मदन सेन रखा।मां भगवती और शिव के प्रति आभार व्यक्त करने मां बम्लेश्वरी का मंदिर बनवाया था।मदनसेन के पुत्र कामसेन ने गद्दी संभाली कामसेन तब राजा विक्रमादित्य के समकालीन थे।कला,नृत्य और संगीत में विख्यात कामाख्या नगरी में काम कंदला नाम की राज नर्तकी थी। नृत्यकला में निपुण,अप्रतिम सुन्दरी थी।नृत्य कुशलता के चर्चे दूर-दूर तक थे।एक बार राजदरबार में काम कंदला का नृत्य हो रहा था।उसी समय माधवा नल नाम का संगीतज्ञ राजदरबार के पास से गुजरा और संगीत में खो गया।तब संगीत प्रेमी माधवानल ने वहाँ प्रवेश करना चाहा,पर उन्हें अंदर नहीं जाने दिया।तब माधवानल बाहर बैठकर तबले,घुंघरू का आनंद लेने लगा।माधवानल को लगा, तबलावादक का बायां अंगूठा नकली है, नर्तकी के पैरों में बंधे घुंघरू में एक घुंघरू में कंकड़ नहीं है।इससे ताल में अशुद्धि आ रही है… उसने कहा कि ‘मैं व्यर्थ में यहां चला आया…। यहां राजदरबार में एक भी संगीतज्ञ नहीं है,जिसे ताल की सही पहचान हो और अशुद्धियों को पकड़ सके। तब ’द्वारपाल ने अजनबी से राजा और राजदरबार के बारे में सुन कर रोका,राजदरबार में राजा को सारी बातें सुनाई,राजाज्ञा से द्वार पाल उन्हें सादर राज दरबार में ले गया,उनके कथन की पुष्टि होने पर संगत का भी मौका दिया, उनकी संगत में काम कंदला नृत्य करने लगी तब ऐसा लग रहा था मानो राग-रागनियों का अद्भुत संगम हो रहा हो तभी एक शरारती भौंरा कामकंदला के वक्ष पर बैठ गया।कामकंदला का ध्यान बंटा जरूर,मगर नृत्य चातुर्य से उसने भौंरे को उड़ा दिया। इस क्रिया को कोई नहीं देख पाया, मगर माधवानल देख रहा था।घटना ने माधवानल को कामकंदला का दीवाना ही बना दिया।दोनों में बाद में प्रेम भी हो गया, कुमार मदनादित्य को यह अच्छा नहीं लगा।एक बार माधवानल की संगत,कामकंदला नृत्य कर रही थी, प्रस्तुति के बाद राजा ने खुश होकर माधवानल को इनाम दिया लेकिन राजा के इनाम को उसने राज नर्तकी को ही दे दिया ।राजा कुपित हो गए।राजा ने राज्य की सीमा से बाहर जाने का आदेश दिया। माधवनल राज्य से बाहर न जाकर वहीं पहाडियों की गुफा में ही छिप गया।काम क़न्दला,सहेली माधवी के साथ छिपकर माधवनल से मिलने जाया करती थीराजा कामसेन पुत्र मदनादित्य,नास्तिक,अय्याश प्रकृति का था।वह कामकन्दला को मन ही मन चाहता था, उसे पाना भी चाहता था। मदना दित्य के डर से काम कन्दला उससे प्रेम का नाटक करने लगी! माधव नल रात्रि काम कन्दला से मिलने घर गया था,उसी वक्त मदनादित्य भी अपने सिपाहियोँ के साथ काम कन्दला से मिलने चला गया।यह देख माधवनल पीछे के रास्ते से गुफा की ओर निकल गया। घर के अंदरआवाजें आने,पूछ्ने पर काम कन्दला ने दीवारों से अकेले बात करने की बात कही।मदनादित्य संतुष्ट नही हुआ, उसने सिपाहियों से घर पर नजर रखने लगा। एक रात्रि वीणा की आवाज सुन कामकन्दला को पहाडी की ओर जाते देख मदना दित्य रास्ते में ही उसकी प्रतिक्षा करने लगा,परन्तु कामकन्दला दूसरे रास्ते से अपने घर लौट गई।मदनादित्य ने शक होने पर काम कन्दला को घर पर नजर बंद कर दिया। इसके बाद कामकन्दला-माधवनल,सहेली माधवी के माध्यम सेपत्र व्यवहार करने लगे, किन्तु मदनादित्य ने माधवी को एक रोज पत्र ले जाते पकड लिया। तब डर,प्रलोभन से माधवी ने सारा सच उगल दिया।मदनादित्य ने काम कन्दला को राजद्रोह के आरोप मे बंदी बना लिया माधवनल को पकडने भी सिपाहियों को भेजा,पर माधवनल पहाडी से निकल भागा और उज्जैन पहुंच गया,उस समय उज्जैन में विक्रमादित्य का शासन था जो बहुत प्रतापी,दयावान राजा थे।माधवनल की करूण कथा सुन उन्होने माधव नल की सहायता में सेना लेकर कामाख्या नगरी पर आक्रमण कर दिया, लम्बे युध्द के बादविक्रमा दित्य विजयी हुए,मदना दित्य,माधवनल के हाथोँ ही मारा गया।युध्द से वैभवशाली कामाख्या नगरी पूर्णतः ध्वस्त हो गई।चारों ओर शेष डोंगर ही बचे रहे, इस प्रकार डुंगराज्य नगर की पृष्ठ भूमि तैयार हुई,राजा विक्रमादित्य ने बाद में काम कन्दला-माधवनल की प्रेम की परीक्षा हेतु जब मिथ्या सूचना फैलाई कि युध्द मैं माधवनल वीरगति को प्राप्त हुआ है तब काम कन्दला ने ताल में कूदकर प्राणोत्सर्ग कर दिया,वह तालाब आज भी उसी नाम से विख्यात है।कामकन्दला के आत्मो त्सर्ग से माधवनल ने प्राण त्याग दिये। प्रयोजन सिध्द होते ना देख राजा विक्रमादित्य ने माँ बम्लेश्वरी (बगुलामुखी) की आराधना की,अतंतः प्राणोत्सर्ग करने को तत्पर हो गये।तब देवी ने प्रकट होकर भक्त को आत्मघात से रोका था। विक्रमादित्य ने माधव नल, कामकन्दला के जीवन के साथ यह वरदान भी मांगा कि माँ बगुलामुखी अपने जागृत रूप मे पहाडी में स्थापित होँ ।तबसे ही माँ बगुला मुखी अपभ्रंश रूप में बम्लेश्वरी साक्षात महा काली रूप मे डोंगरगढ में प्रतिष्ठित है।
विशेष…….
ऐतिहासिक,धार्मिक नगरी डोंगरगढ़ में मां बम्लेश्वरी के दो मंदिर विश्व प्रसिद्ध हैं। एक मंदिर 1600 फीट ऊंची पहाड़ी पर स्थित है जो बड़ी बम्लेश्वरी के नाम से प्रसिद्ध है।नीचे स्थित छोटी बम्लेश्वरी के नाम से विख्यात है।ऊपर और नीचे विराजित मां को एक दूसरे की बहन कहा जाता है। ऊपर वाली मां बड़ी और नीचे वाली छोटी बहन मानी गई है। 1964 में खैरागढ़ रियासत के पूर्व नरेश वीरेन्द्र बहादुर सिंह ने एक ट्रस्ट की स्थापना कर मंदिर का संचालन ट्रस्ट को सौंप दिया था।बम्ले श्वरी देवी का इतिहास लगभग 2200 वर्ष पुराना है।डोंगरगढ़ से प्राप्त भगनावेशोँ से प्राचीन कामावती नगरी होने के प्रमाण मिले हैं।पूर्व में डोंगर गढ़ ही कामाख्या नगरी थी।मां बम्लेश्वरी को मध्यप्रदेश के उज्जैयनी के राजा विक्रमादित्य की कुलदेवी भी कहा जाता हैइतिहास कारों और विद्वानों ने इस क्षेत्र को कल्चूरी काल का पाया है लेकिन उपलब्ध सामग्री जैसे जैन मूर्तियां यहां दो बार मिल चुकी हैं,तथा उससे हटकर कुछ मूर्तियों के गहने,उनके वस्त्र,आभूषण,मोटे होठों तथा मस्तक के लम्बे बालों की सूक्ष्म मीमांसा करने पर इस क्षेत्र की मूर्तिकला पर गोंडकला का प्रमाण परि लक्षित हुआ है।यह अनुमान लगाया जाता है कि16 वीं शताब्दी में डूंगराख्या नगर गोंड राजाओं के अधिपत्य में रहा।यह अनुमान भी अप्रासंगिक नहीं है कि गोंड राजा पर्याप्त समर्थवान थे, जिससे राज्य में शांति व्यवस्था स्थापित थी।आज भी पहाड़ी में किले के बने हुए अवशेष बाकी हैं।इसी वजह से इसका नाम डोंगरगढ़ (गोंगर,पहाड़,गढ़,किला) रखा गया, मां बम्लेश्वरी का मंदिर चोटी पर स्थापित किया गया है।