बस्तर के आदिवासी समाज में ‘मौत के बाद बनाते हैँ मृतक स्तंभ’….

{किश्त 94}

आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र बस्तर अपनी अनोखी परंपरा,आदिवासी रीति रिवाज,कला,संस्कृति के लिए पूरे विश्व में विख्यात है।बस्तर के आदिवासियों में जो परंपरा देखने को मिलती है वह शायद ही अन्य जगहों पर देखने को मिलेगी।यहां के आदिवासी अपनी परंपरा को अपनी मुख्य धरोहर मानते हैं यही वजह है कि आदिवासियों में सैकड़ों सालों से चली आ रही परंपरा आजभी कायम है।आदिवासी परंपरा को बखूबी निभाते आ रहे हैं। बस्तर में ऐसी कई सारी परंपरा है,जो केवल बस्तर में ही देखने को मिलती है।उनमें से एक है मृतकस्तंभ, आदिवासी अपने परिवार के किसी व्यक्ति की मौत हो जाने पर याद में पत्थर के स्तंभ की स्थापना करते हैं, जो सदियों तक सुरक्षित रहती है।आदिवासी अपनी संस्कृति में माड़िया,दंडामी माड़िया जनजाति के लोग काफ़ी पहले से ही प्रमुख लोगों की याद में मौत के बाद सड़क के ही किनारे पाषाण पत्थर के स्तंभ स्थापित करते आए हैं,मौत के तकरीबन 1साल तक मृतक स्तंभ लगाने की आदिवासियों में परंपरा प्रचलित है।पुरातत्व विभाग ने मृतक स्तंभों को संजोकर रखा है।बस्तर मेंआदिवासी समाज में मृतकस्तंभ लगाने की परंपरा सदियों से चली आ रही है।परिवार के किसी सदस्य की मौत हो जाने के बाद सगे संबंधी,ग्रामवासी मिलकर क्रियाकर्म करते हैं।इस दौरान पूजा के बाद मृतक की याद में 4 से 5 फीट ऊंचा पत्थर गाड़कर उसकी स्मृति को संजोते हैं।पत्थर का यह स्तंभ सदियों तक सुरक्षित रहता है।खास कर बस्तर के आदिवासी संस्कृति में माडिया दंडामी, माडिया जनजाति के लोग प्राचीनकाल से प्रमुख व्यक्ति की मौत पर उनकी स्मृति में पत्थर के स्तंभ स्थापित करते आए हैं।

‘शव के साथ दबा दी जाती
है उस व्यक्ति से जुड़ी चींजे’

जानकारों के अनुसार गांव के मुखिया और सम्मानित व्यक्तियों की स्मृति स्तंभ बड़े और ऊंचे आकार के होते हैं,जबकि छोटे बच्चों और महिलाओं के स्मृति के पत्थर छोटे होते है।गांव में जिसकी मृत्यु होती है उसे दफनाने से पहले उससे जुड़ी रोजमर्रा की वस्तुएं बर्तन,कपड़े सोना,चांदी, सिक्के आदि के साथमृतक को दफनाया जाता है।दर असल आदिवासियों का मानना है कि मौत के बाद भी पूर्वजों की आत्मा गांव में रहती है,वो गांव,ग्रामीणों की रक्षा करती है।इन पत्थर के स्तंभ या पूर्वजों कीवजह से बुरी आत्मा और विपदा गांव में प्रवेश नहीं करती, उनका मानना है कि पूर्वज घनघोर जंगलों के बीच रहते थे।उस दौरान बोई गई फसल,वनोपज आदि के दौरान किसी प्रकार की बाधा ना आए इसके लिए पूर्वजों को तर्पण करते आ रहे हैं।पहले आदिवासी अपने मृतकों की याद में लकड़ी के स्तंभ बनाते थे, बस्तर में पहले जंगल बहुत थे,आमतौर पर मृतक स्तंभ लकड़ी के बनाए जाते थे, लेकिन लगातार सिमटते जंगलों की वजह से पत्थर के स्मारकों का प्रचलन बढ़ा।डिलमिली इलाके में लकड़ी के स्तंभ,दंतेवाड़ा जिले के गमावड़ा में पत्थर के स्तंभ,पुरातत्व सर्वेक्षण ने राष्ट्रीय धरोहर घोषित कर संरक्षित करने का जिम्मा अपने पास रखा है।पुरातत्व विभाग ने आदिवासियों के मृतक स्तंभ के आसपास रेलिंग बनाकर पूरी तरह से सरंक्षित कर रखा है,साथ ही यहां सुरक्षा की दृष्टि से सीसीटीवी कैमरे भी लगाए गए हैं।

‘एक लाख रुपए
तक का जुर्माना’

इन मृतक स्तंभों में किसी तरह की छेड़खानी पर एक लाख रुपए तक के जुर्माने का भी प्रावधान है।हालांकि बस्तर में कुछ जगहों पर यह परंपरा विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गई है,अभी भी बस्तर के कई अंदरूनी क्षेत्रों में आदिवासी समाज अपने परंपरा को जीवित रखते हैं।उन जगहों में तीज त्यौहार पितृपक्ष,पुण्यतिथि के दौरान इन मृतक स्तंभों में विशेषपूजा,अर्चनाकर आशीर्वाद लिया जाता है, परिवार में खुशहाली,रक्षा की मनोकामना मांगी जाती है।

भोपाल मानव विज्ञान केंद्र
में बस्तर का मृतक स्तंभ

गौरतलब है कि बस्तर के समृद्ध-विलक्षण आदिवासी संस्कृति में प्राचीन धरोहर के रूप में स्थापित मृतक स्तंभ देश के सबसे बड़े मानव विज्ञान संग्रहालय भोपाल की शान बढ़ा रहा है,भोपाल का मानव विज्ञान संग्रहालय ही एकमात्र ऐसा केंद्र है,मृतकस्तंभ स्थापित किया गया है।सैकड़ों साल पुराने मृतक स्तंभ को वहां काफी सहेजकर रखा गया है,भोपाल में आदिवासियों के साथ जनजातियों के जनजीवन से जुड़ी 27 हजार वस्तुओं का प्रदर्शन किया गया है।इनमें बस्तर के आदिवासी संस्कृति से जुड़ी वस्तुओं के प्रदर्शन के लिए अलग से गैलरी भी बनाई गई है।

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