{किश्त 90}
छ्ग के सरगुजा,बस्तर आदि अंचल की जन जातियों में गोदना अधिक देखने को मिलता है।वैसे हिन्दू धर्म में लगभग सभी जातियों में गोदना प्रथा आदिकाल से प्रचलित है। सांस्कृतिक,सामाजिक, वैज्ञानिक तथा धार्मिक तथ्यों से जुडी हुई है।अब भारत के महा नगरों में भी टेटू का क्रेज है।गोदना शब्द का शाब्दिक अर्थ चुभाना है।शरीर में सुई चुभोकर उसमें काले,नीले रंग का लेप लगाकर गोदना कलाकृति बनाई जाती है।इसे अंग्रेजी में टैटू कहते हैं।कहीं-कहीं इसे गुदना नाम से भी जाना जाताहै,गोदना प्रथा प्राचीन काल से चल रही है।महाभारत काल में भी श्रीकृष्ण गोदनहारिन का रुप धारण कर राधा को गोदना गोदने गये थे।यह बताना कठिन है इसकीशुरु आत कैसे और कब हुई होगी।यह बात सच है कि प्रथा की शुरुआत कुनबे की पहचान के लिए हुई होगी!यही कारण है कि हिन्दु धर्म में लगभग सभी जातियों में गोदनाप्रथा का प्रचलन है। हाथों में नाम,धार्मिक शब्द लिखवाना इस प्रथा को बल देता है।विवाह में तो दुल्हन के हाथ में लगाई गईं मेंहदी में उसके होने वाले पति का नाम लिखा जाता है।छग का आदिवासी अंचलबस्तर अनमना सा है,कभी वहां वादियों में स्वतंत्र विचरण करने वाले स्त्री-पुरुष,जीव -जंतु सभी सहमे सहमे से हैं।बारूद की आवाजें, बारूदी सुगंध से बेचैनी है। घोटुल प्रथा,परंपरागत नृत्य संगीत, गोदना,सभी पर नक्सलवाद सहित वहां सुरक्षाबलों की तैनाती ने आदिवासियों के जनजीवन को बुरी तरह प्रभावित किया है।अब वहां के आदिवासी ‘दो पाटन के बीच’ फंस गये हैं।सुरक्षा बलों या नक्सलियों की तरफदारी उनके जीवन को संकट में डाल रही है,गोदना यानि शरीर पर चलती सुईयां….चेहरे पर झलकता दर्द…लेकिन आंखों में संतोष और खुशी के आंसू! गोदना आदिवासियों का श्रृंगार है।आदिवासी क्षेत्रों में गोदना किसी परंपरा की तरह पीढ़ी दर पीढ़ी चल रही है।गोदना केआधार पर बैगा आदिवासी की उम्रऔर समाज की पहचान की जा सकती है।आदिवासियों का गोदना,शहरी फैशन के ‘टैटू’ की तरह अस्थाई नहींबल्कि ‘जिंदगी के साथ भी जिंदगी के बाद भी’ के स्लोगन की तरह है।कुछ विद्वानों की राय है कि गोदना के जरिये शिराओं में प्रवाहित होती दवायें आजीवन शरीर को गंभीर बीमारियों से बचाती है।गोदना,जापानी परंपरा के एक्यूपंचर की तरह है। बैगा आदिवासियों की मानें तो गोदना गुदवाने सेगठिया वात,चर्म रोग नहीं होता है।चीन में भी तो सुई चुभाकर एक्यूपंचर पद्धति से कई रोगों का इलाज कियाजाता है।गोदना आधुनिक समाज का फैशन का टैटू नहीं बल्कि आत्मा का श्रृंगार माना जाता है।राधा से मिलने कृष्ण बरसाने की गलियों में कभी गोदना हारिन बनकर गये तो कभी चूडिय़ां बेचने का स्वांग करके गये यानि तभी से मानव शरीर में गोदना की परंपरा शुरू हुई।सनातन धर्म में सुहागन महिला के लिए गोदना अनिवार्य होने की भी चर्चा पहले से होती थी।छ्ग के सबसे पिछड़े इलाके बस्तर में भी ‘गोदना’ की परंपरा काफी पुरानी है। आजकल प्रचलित ‘टैटू’उसी गोदना परंपरा काआधुनिक रूप ही लगता है। बस्तर के आदिवासी,कवर्धा सहित सरगुजा आदि क्षेत्र में बैगा जनजाति तो पूरे शरीर में गोदना गुदवाती थी।लेकिन अब इसका अंदाज बदल गया है।अब इस कला को कपड़ों पर उतारा जाता है।बस्तर,सरगुजा के गोदना आर्ट की पहचान विदेशों तक हो गई है। भारत के अंतर्राष्ट्रीय मेले में गोदना कला की घूम रहती है।छत्तीसगढ़ का स्टाल आकर्षण का केन्द्र रहता है।गोदना हर देश परंपरा में मिल जाता है।वर्षों पहले विश्व में इस कला काप्रमाण ईसा से1300 साल पहले मिस्त्र में, 300 वर्ष ईसा पूर्व साइबेरिया के कब्रिस्तान में मिले थे।एडमिरैस्टी द्वीप में रहनेवाल फिजी निवासियों, भारत के गोंड और रोडो सहित कुछ जनजातियों में गोदना गुदवाने की परंपरा थी। पहले इसे श्रृंगार स्वास्थ्य से जोड़ा जाता था।कैलिफोर्निया युनिवर्सिटी के शरीर विज्ञान विभाग द्वारा किये गये शोध के अध्ययन के अनुसार टैटू,गोदना के वर्तमान स्वरूप के कारण त्वचा और हड्डी के कैंसर की संभावना बढ़ती है।कई चर्म रोग भी होते हैं।फिल हाल ‘टैटू’ से होने वालेकैंसर पर शोध जारी है।असल में टैटू के लिए उपयोग में लाये जाने वाले रसायनों से संक्रमण का खतरा हो गया है।आदिवासी समाज तो प्राकृतिक रसायनों का उपयोग करता था।पर आधुनिक समाज में टेटू के लिये कई रासायनिकों का उपयोग अब मानव शरीर को नुकसान पहुंचा रहा है?