{किश्त83}
स्वामी विवेकानन्द /महा मानव के बालक नरेंद्र के रूप में डेढ़ साल रायपुर में बीते,जो कलकत्ता के बाद किसी अन्य स्थान में उनका बिताया सबसे अधिकसमय था।रायपुर से लौटकर उन्होंने 1879 में 16 वर्ष की आयु में एंट्रेंस परीक्षा पास की थी।रायपुर का बूढ़ातालाब/विवेकानंद सरोवर,जिसके पास उन्होंने निवास किया।छानबीन करते हुए स्वामी आत्मानंद जी का लेख मिल गया… जिसका कुछ हिस्सा मैंने उनसे प्रत्यक्ष चर्चा में और उनके उद्बोधन में भी सुना है।’स्वामी विवेकानन्द और मध्यप्रदेश’ शीर्षक से अबूझ माड़ ग्रामीण विकासप्रकल्प की स्मारिका 1987 में प्रकाशित इस लेख का रायपुर प्रवास से संबंधित अंश—-विवेकानन्द,जो नरेन्द्रनाथ दत्त के रूप में सन 1877 ई. में रायपुर आये। तब उनकी आयु 14 वर्ष की थी और वे मेट्रो पोलिटन विद्यालय की तीसरी श्रेणी (आज की आठवीं कक्षा के समकक्ष) में पढ़ रहे थे।उनके पिता विश्वनाथ दत्त तब अपने पेशे के काम से रायपुर में रह रहे थे,उन्हें लगा कि रायपुर में काफी समय रहना पड़ेगा,तब उन्होंने अपने परिवार के लोगों को भी रायपुर में बुला लिया था,नरेन्द्र अपने छोटे भाई महेन्द्र,बहिन जोगेन्द्रबाला माता भुवनेश्वरी देवी के साथ कलकत्ता से रायपुर के लिए रवाना हुए।रायपुर- कलकत्ते से रेललाइन से नहीं जुड़ा था।तब रेलगाड़ी कलकत्ता से इलाहाबाद, जबलपुर,भुसावल होते हुए बम्बई जाती थी।नागपुर, भुसावल से जुड़ा हुआ था,नागपुर से इटारसी होकर दिल्ली जानेवाली रेललाइन भी नहीं बनी थी।अत:सम्भव है,नरेन्द्र अपने परिवार के सदस्यों के साथ जबलपुर उतरे हों और वहां से रायपुर आने के लिए बैलगाड़ी की हो। उनके कुछ जीवनी कारों ने लिखा है कि नरेन्द्र, घर के लोग नागपुर से बैलगाड़ी द्वारा रायपुर गये,पर नरेन्द्र को इस यात्रा में एक अलौकिक अनुभव हुआ,वह संकेत करता है कि वे लोग जबलपुर से ही बैलगाड़ी द्वारा मण्डला, कवर्धा होकर रायपुर गये हों?उनके कथनानुसार, इस यात्रा में उन्हें पन्द्रह दिनों से भी अधिक का समय लगा था।उस समय पथ कीशोभा मनोरम थी,रास्ते के दोनों किनारों पर पत्तों और फूलों से लदे हुए हरे हरे सघन वन वृक्ष होते।भले ही नरेन्द्र को इस यात्रा में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था, तथापि,उनके ही शब्दों में, ”वनस्थली का अपूर्वसौन्दर्य देखकर वह क्लेश मुझे क्लेश ही नहीं प्रतीत होता था।अयाचित होकर भी जिन्होंने पृथ्वी को इस अनुपम वेशभूषा के द्वारा सजा रखा है,उनकी असीम शक्ति और अनन्त प्रेम का पहले-पहल साक्षात परिचय पाकर मेरा हृदय मुग्ध हो गया था।उन्होंने बताया था,’वन के बीच से जाते हुए उस समय जो कुछ मैंने देखा या अनुभव किया,वह स्मृतिपटल पर सदैव के लिए दृढ़ रूप से अंकित हो गया है।विशेष रूप से एक दिन की बात उल्लेखनीय है।उस दिन हम उन्नत शिखर विन्ध्यपर्वत के निम्न भाग की राह से जा रहे थे।मार्ग के दोनों ओर बीहड़ पहाड़ की चोटियां आकाश को चूमती हुईखड़ी थीं।तरह तरह की वृक्ष- लताएं,फल और फूलों के भार से लदी हुईपर्वतपृष्ठ को अपूर्व शोभा प्रदान कर रही थीं।मधुर कलरव से मस्त दिशाओं को गुंजाते हुए रंग-बिरंगे पक्षी, कुंज कुंज में घूम रहे थे,या फिर कभी-कभी आहार की खोज में भूमि पर उतर रहे थे।इन दृश्यों को देखते हुए मैं मन में अपूर्व शान्ति का अनुभव कर रहा था।धीर मन्थर गति से चलती हुई बैलगाडिय़ां एक ऐसे स्थान पर आ पहुंची,जहां पहाड़ की दो चोटियां मानों प्रेम वश आकृष्ट हो आपस में स्पर्श कर रही हैं।उस समय उन श्रृंगों का विशेष रूप से निरीक्षण करते हुए मैंने देखा कि पास वाले एक पहाड़ में नीचे से लेकर चोटी तक एक बड़ा भारी सुराख है, lउस रिक्त स्थान को पूर्ण कर मधु मक्खियों के युग-युगान्तर के परिश्रम के प्रमाण स्वरूप एक प्रकाण्ड मधुचक्र लटक रहा है।उस समय विस्मय मेंमग्न होकर उस मक्षिका राज्य के आदि,अन्त की बातें सोचते सोचते मन तीनों जगत के नियन्ता ईश्वर की अनन्त उपलब्धि में इस प्रकार डूब गया कि थोड़ी देर के लिए मेरा सम्पूर्ण बाह्य ज्ञानलुप्त हो गया,कितनी देर तक इस भाव में मग्न होकर मैं बैलगाड़ी में पड़ा रहा,याद नहीं…।जब पुन: होश में आया,तो देखा कि उस स्थान को छोड़ काफी दूर आगे बढ़ गया हूं। बैलगाड़ी में मैं अकेला ही था,इसलिए यह बात और कोई न जान सका। (14स्वामी सारदा नन्द: ‘श्रीराम कृष्ण लीला प्रसंग’,तृतीय खण्ड, द्वितीय संस्करण, नागपुर,पृ. 67-68) नरेन्द्र नाथ की यह रायपुर-यात्रा इसलिए भी विशेष महत्वपूर्ण हो जाती है कि इस यात्रा में उन्हें अपने जीवन में पहली भाव-समाधि का अनुभव हुआ था।रायपुर में अच्छा विद्यालय नहीं था।इसलिए नरेन्द्र पिता से ही पढ़ाकरते थे।यह शिक्षा केवलकिताबी नहीं थी।पुत्र की बुद्धि के विकास के लिए पिताअनेक विषयों की चर्चा करते।यहां तक कि पुत्र के साथ तर्क में भी प्रवृत्त हो जाते क्षेत्र विशेष में अपनी हार स्वीकार करने में कुण्ठित न होते।उन दिनों विश्वनाथ बाबू के घर में अनेक विद्वानों,बुद्धिमानों का समागम हुआ करता तथा विविध सांस्कृतिक विषयों पर चर्चाएं चला करतीं। नरेन्द्र बड़े ध्यान से सब कुछ सुना करते,अवसर पाकर किसी विषय पर अपना मन्तव्य भी देते थे ।उनकी बुद्धिमता,ज्ञान को देखकर बड़े-बूढ़े चमत्कृत हो उठते,इसलिये कोई भी उन्हें छोटा समझ उनकी अवहेलना नहीं करता था।एक दिन ऐसी ही चर्चा के दौरान नरेन्द्र ने बंगला के एक ख्यातनामा लेखक के गद्य-पद्य से अनेक उद्धरण देकर अपने पिता के एक सुपरिचित मित्र को इतना आश्चर्यचकित कर दिया कि वे प्रशंसा करते हुए बोल पड़े,बेटा,किसी दिन तुम्हारा नाम हम अवश्य सुनेंगे!कहना न होगा कि यह मात्र स्नेहसिक्त अत्युक्ति नहीं थी,वह तो एक अत्यन्त सत्य भविष्यवाणी थी। नरेन्द्र, बंग-साहित्य में अपनी चिरस्थायी स्मृति रख गये। नरेन्द्र बालक होते हुए भी आत्मसम्मान की रक्षा करना जानते थे।अगर कोई उनकी आयु को देख कर अवहेलना करनाचाहता तो वे सह नहीं सकते थे।बुद्धि की दृष्टि से वे जितने बड़े थे,वे स्वयं को उससे छोटा या बड़ा समझने का कोई कारण नहीं खोज पाते थे, दूसरों को इस प्रकार सोचने का कोई अवसर भी नहीं देना चाहते थे। एकबार जब उनके पिता के एक मित्र बिना कारण उनकी अवज्ञा करने लगे,तो नरेन्द्र सोचने लगे,यह कैसाआश्चर्य है!मेरे पिता भी मुझे इतना तुच्छ नहीं समझते,ये मुझे ऐसा कैसासमझते हैं,आहत मणिधर के समान सीधा होकर उन्होंने दृढ़ स्वरों में कहा,आपके समान ऐसे अनेक लोग हैं, जो यह सोचते हैं कि लड़कों में बुद्धि- विचार नहीं होता। किन्तु यह धारणा नितान्त गलत है। जब आगन्तुक सज्जन ने देखा कि नरेन्द्र अत्यन्त क्षुब्ध हो उठे हैं,वे उसके साथ बात करने के लिए भी तैयार नहीं हैं,तब उन्हें अपनी त्रुटि स्वीकार करने के लिए बाध्य होना पड़ा।कठोपनिषद् में बालक नचिकेता में भी ऐसी ही आत्मश्रद्धा दिखाई देती है। उसने कहा था,बहुत से लोगों में मैं प्रथम श्रेणी का हूं और बहुतों में मध्यम श्रेणी का,पर मैं अधम कदापि नहीं हूं।नरेन्द्र में पहले से ही पाकविद्या के प्रति स्वाभाविक रूचि थी।रायपुर में हमेशा अपने परिवार में ही रहने के कारण तथा इस विषय में अपने पिता से सहायता प्राप्त करने,उनका अनु करण करने से वे इस विद्या में और भी पटु हो गये। रायपुर में उन्होंने शतरंज खेलना भी सीख लिया, अच्छे खिलाडिय़ों के साथ वे होड़ भी लगा सकते थे। (15- स्वामी गम्भीरानन्द: युगनायक विवेकानन्द (बंगला), प्रथम खण्ड, कलकत्ता, पृ. 55-57 (आगे युग नायक नाम सेअभिहित)) फिर,रायपुर में ही विश्वनाथ बाबू ने नरेन्द्र को संगीत की पहली शिक्षा दी। विश्वनाथ स्वयं इस विद्या में पारंगत थे और उन्होंने इस विषय में नरेन्द्र की अभिरूचि ताड़ ली थी। नरेन्द्र का कण्ठ- स्वर बड़ा ही सुरीला था।आगे चलकर एक सिद्धहस्त गायक बने थे,पर उनके व्यक्तित्व का यह पक्ष भी रायपुर में ही विकसित हुआ।(16- दि लाइफ ऑफ स्वामी विवेकानन्द, अद्वैत आश्रम, मायावती, भाग 1, पांचवां संस्करण, पृ. 42-43(आगे दिलाइफ नाम से अभिहित)
डेढ़ वर्ष रायपुर में रहकर विश्वनाथ सपरिवार कल कत्ता लौट आये। तब नरेन्द्र का शरीर स्वस्थ, सबल और हृष्ट-पुष्ट हो गया और मन उन्नत….। उनमें आत्म विश्वास भी जाग उठा था और वे ज्ञान में भी अपने समवयस्कों की तुलना में बहुत आगे बढ़ गये थे। किन्तु बहुत समय तक नियमित रूप से विद्यालय में न पढऩे के कारण शिक्षकगण उन्हें ऊपर की (प्रवेशिका) कक्षा में भरती नहीं करना चाहते थे।बाद में विशेष अनुमति प्राप्त कर वे विद्यालय की इसी कक्षा में भरती हुए तथा अच्छी तरह से पढ़ाई कर सभी विषयों को थोड़े ही समय में तैयार करके उन्होंने 1879 में परीक्षा दी। परीक्षा का परिणाम निकलने पर देखा गया कि वे केवल उत्तीर्ण ही नहीं हुए हैं, प्रत्युत उस वर्ष विद्यालय से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने वाले एकमात्र विद्यार्थी हैं।यह सफलता अर्जित कर उन्होंने अपने पिता से उपहार स्वरूप चांदी की एक सुन्दर घड़ी प्राप्त की थी।रायपुर में घटी और दो घटनाएं नरेन्द्र नाथ के व्यक्तित्व के विकास की दृष्टि से बड़ी महत्वपूर्ण हैं। विश्वनाथ ने पुत्र को संगीत के साथ-साथ पौरुष की भी शिक्षा दी थी।एक समय नरेन्द्र,पिता के पास गये और उनसे पूछ बैठे,आपने मेरे लिए क्या किया है…? तुरन्त उत्तर मिला,जाओ दर्पण में अपना चेहरादेखो! पुत्र ने तुरन्त पिता के कथन का मर्म समझ लिया,वह जान गया कि उसके पिता मनुष्यों में राजा हैं।एक दूसरे समय नरेन्द्र ने अपने पिता से पूछा – कि परिवार में किस प्रकार रहना चाहिए अच्छी वर्तनी का माप-दण्ड क्या है? इस पर पिता ने उत्तर दिया था,कभी आश्चर्य व्यक्त मत करना!क्या यह वही सूत्र था,जिसने नरेन्द्र नाथ को विवेकानन्द के रूप में समदर्शी बनाकर, राजाओं के राजप्रासाद और निर्धनों की कुटिया में समान गरिमा के साथ जाने में समर्थ बनाया था (17- वही, पृ. 44) उपर्युक्त विवरण प्रदर्शित करते हैं कि नरेन्द्र के व्यक्तित्व के सर्वतोमुखी विकास में रायपुर का क्या योगदान रहा है।