श्रम का अवमूल्यन ना हो, बस यही तो मजदूर चाहता है..

प्रवीण कक्कड़ 
हम ने हर दौर में तज़लील सही है लेकिन
हम ने हर दौर के चेहरे को ज़िया बख़्शी है
हम ने हर दौर में मेहनत के सितम झेले हैं
हम ने हर दौर के हाथों को हिना बख़्शी है

साहिर लुधियानवी की इन पंक्तियों में मजदूरों का दर्द भी छुपा है और उनके योगदान का अक्स भी दिखाई देता है। अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस दुनिया में अलग अलग नाम से मनाया जाता है। लेकिन भावना वही है, इस धरती को जिन्होंने बनाया है, उन मजदूरों को इज्जत और सम्मान देना। उनके वजूद को महसूस करना और उनके महत्व को समझना। और उनके अधिकारों को बाधित ना करना। दुनिया में सुई से लेकर अंतरिक्ष में जाने वाले राकेट तक, सड़क से लेकर गगनचुंबी इमारतों तक, शहर से लेकर गांव तक, साइकिल से लेकर प्लेन तक सब कुछ मजदूर ही तो बनाते हैं। मजदूर याने श्रमिक। इसलिए श्रम और श्रमिक का सम्मान जरूरी है।
दुनिया के सभी मजदूरों की सबसे बड़ी समस्या है श्रम का अवमूल्यन। लाभ का एक बड़ा हिस्सा जब पूंजीपति की जेब में जाता है तो श्रम का अवमूल्यन शुरू हो जाता है। और यहीं से शोषण शुरू होता है। यह शोषण सबसे ज्यादा असंगठित क्षेत्र में है। जिन देशों में मजदूरों के लिए सख्त कानून बने हैं, वहां स्थिति थोड़ी बेहतर है। लेकिन जहां बड़ी जनसंख्या है और लगातार प्रतिस्पर्धा है, वहां मजदूरों की स्थिति विचारणीय है। ऐसा नहीं कि सरकारें कुछ नहीं करती। लेकिन सरकार से ज्यादा यह समाज के सरोकार का विषय है। आमतौर पर कहा जाता है कि पूंजीवाद में श्रमिक का शोषण होता है लेकिन यह सच नहीं है। श्रमिकों का शोषण हर जगह होता है। जहां श्रम का उचित पुरस्कार नहीं मिलता। जहां पर श्रमिक अपनी बुनियादी भौतिक जरूरतों को पूरा करने में असमर्थ रहता है, वह उसका शोषण ही है। जहां लाभ का न्यायोचित वितरण ना हो और एक व्यक्ति के हाथ में सारी पूंजी केंद्रित हो, वहां मजदूर का शोषण हो सकता है। चाहे वह पूंजीवाद हो, साम्यवाद हो या समाजवाद।
आजादी के बाद भारत में मजदूरों के हितों के लिए विशेष कानून बनाए गए। श्रमिक कल्याण कानूनों के उद्देश्यों को चार भागों में बांटा जा सकता है। पहला सामाजिक न्याय, दूसरा आर्थिक न्याय, तीसरा राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की मजबूती और चौथा अंतरराष्ट्रीय संधियों और समझौतों के प्रति वचनबद्धता लेकिन यह कानून अपनी जगह है और व्यावहारिक परिस्थितियां अपनी जगह। कानून के मुताबिक किसी मजदूर से 8 घंटे से अधिक काम नहीं कराया जा सकता उसे न्यूनतम वेतन देना जरूरी है और उसके दूसरे अधिकार भी उसे मिलने चाहिए। लेकिन कई बार विपरीत परिस्थितियों में यह सब चीजें मजदूरों को मिल नहीं पाती। मजदूरों को उनके अधिकार सुनिश्चित कराना एक कल्याणकारी सरकार की जिम्मेदारी है।
व्यवस्था कोई भी हो संवेदनशीलता नहीं रहेगी तो मजदूरों की समस्याओं का हल नहीं होगा। संवेदनशीलता समाज की भी जरूरी है। समाज को श्रमिक को हेय दृष्टि से देखना छोड़ना होगा। सही मायने में देखा जाए तो इस समाज का पहला निर्माता तो मजदूर ही है। मजदूर के मजबूत हाथों ने इस सभ्यता का निर्माण किया है। उसने शहर बनाए हैं, नगर बनाए हैं, अविष्कारों को अमलीजामा पहनाया है। उसने खेतों को जंगलों के बीच बनाकर उनसे अन्न निकाला है। उसने खदान की गहरी सुरंगों में जाकर बहुमूल्य धातुएं और खनिज निकाले हैं। उसने इंसानी सभ्यता के आगे बढ़ने के लिए दुर्गम रास्ते खोज निकाले हैं। और उन रास्तों को सुगम बना दिया है।
इसलिए जरूरी है समाज, सत्ता और व्यवस्था मजदूरों के विषय में संवेदना पूर्वक विचार करें। उनकी समस्याओं का समाधान करे। जब उनका शरीर अशक्त हो और वह श्रम करने के काबिल ना हों उस वक्त उनके जीवन की व्यवस्था करे। उनके जीवन की बुनियादी जरूरतों को पूरा करे। उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य, रोटी – कपड़ा और मकान का प्रबंध करे। तभी इस समाज की उन्नति संभव है। सभ्यता के बढ़ते कदम की अग्रिम पंक्ति पर मजदूर ही तैनात है। जो हमारे अग्रज हैं। जिन्होंने हमारी सभ्यता की दिशा तय की है। जिन्होंने हमें घर बनाकर दिया है, भोजन दिया है, परिवहन दिया है और भी बहुत कुछ दिया है। उन मजदूरों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन आवश्यक है। और यह तभी संभव हो सकेगा जब मजदूरों के प्रति समाज संवेदनशील बनेगा। सरकारें उनके अधिकारों के प्रति चैतन्य होंगी।

मजदूर दिवस का इतिहास
राजशाही के पतन और कृषि आधारित अर्थव्यवस्था की पूरी बात और संवाद के रूप में परिवर्तित होने के बाद ही दुनिया में मजदूरों के ऊपर होने वाले शोषण और उनके अधिकारों की चर्चा विधिवत शुरू हुई।
अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस मनाने की शुरूआत 1 मई 1886 से मानी जाती है, जब अमेरिका की मज़दूर यूनियनों नें काम का समय 8 घंटे से ज़्यादा न रखे जाने के लिए हड़ताल की थी। मई दिवस की दूसरी ताकत रूस में कोई बोल्शेविक क्रांति के बाद मिली जो कार्ल मार्क्स के सिद्धांतों पर मजदूरों की सरकार मानी गई। भारत में सबसे पहले यह विचार दिया था कि दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ।
इस तरह देखें तो पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों ही प्रणालियों में मजदूर के महत्व को पहचाना गया। भारत में मई दिवस सबसे पहले चेन्नई में 1 मई 1923 को मनाना शुरू किया गया था। उस समय इस को मद्रास दिवस के तौर पर प्रामाणित कर लिया गया था। इस की शुरूआत भारतीय मज़दूर किसान पार्टी के नेता कामरेड सिंगरावेलू चेट्यार ने शुरू की थी। भारत में मद्रास के हाईकोर्ट सामने एक बड़ा प्रदर्शन किया और एक संकल्प के पास करके यह सहमति बनाई गई कि इस दिवस को भारत में भी कामगार दिवस के तौर पर मनाया जाये और इस दिन छुट्टी का ऐलान किया जाये। भारत समेत लगभग 80 मुल्कों में यह दिवस पहली मई को मनाया जाता है। इसके पीछे तर्क है कि यह दिन अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस के तौर पर प्रामाणित हो चुका है।
(लेखक पूर्व पुलिस अधिकारी और समाजसेवी हैं)

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