( लेखक एक पूर्व अधिकारी हैं )
मध्य प्रदेश के दो प्रमुख शहर इंदौर और भोपाल में पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू करने की घोषणा रविवार को मुख्यमंत्री ने की। इससे मध्यप्रदेश में पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू करने का रास्ता साफ हो गया है। ऐसा नहीं है कि यह घोषणा अचानक हो गई है, इससे पहले नवंबर 2009 में एसएसपी सिस्टम, फरवरी 2012 और मार्च 2018 में कमिश्नर सिस्टम की घोषणा की गई थी लेकिन विभिन्न कारणों से कमिश्नर सिस्टम अमल में नहीं हो सका।
यह सिस्टम लागू होने के बाद पुलिस कमिश्नर के पास धारा 144 लगाने और लाठी चार्ज करने से पहले कलेक्टर की अनुमति लेने की जरूरत नहीं होगी। आदतन अपराधियों को भी पुलिस कमिश्नर सीधे जेल भेज सकेगा। मोटे तौर पर यह समझें कि अपराध को नियंत्रण करने के मामले में पुलिस कमिश्नर के पास अतिरिक्त अधिकार रहेंगे और हर छोटे काम के लिए उसे कलेक्टर की ओर नहीं देखना होगा।
इस बदलाव को आईएएस और आईपीएस की प्रतिद्वंद्विता के रूप में देखने के बजाय प्रशासनिक सुधार के तौर पर देखना चाहिए। जनता को इस बात से मतलब नहीं है कि कोई नियम कलेक्टर लागू करता है या उस नियम को पुलिस कमिश्नर लागू करता है। जनता की मूल चिंता यही होती है कि कानून व्यवस्था बेहतर रहे, उनके शहर में अपराध कम हो और लोग निर्भय होकर दिन या रात में कहीं भी आवागमन कर सकें।
ऐसे में भोपाल और इंदौर की जनता के साथ ही यहां के प्रशासनिक वर्ग को भी इस नए प्रयोग को एक मौका देना चाहिए। देश के 16 राज्यों के 70 शहरों में यह सिस्टम पहले से ही लागू है। जाहिर है कि अगर मध्य प्रदेश के 2 शहरों में भी यह सिस्टम लागू किया गया है तो सरकार ने पहले से लागू करने वाले 70 शहरों का अध्ययन और अनुभव जरूर प्राप्त किया होगा।
खुद भी लंबे समय तक एक पुलिस अफसर के रूप में सेवा देने के कारण मैं जानता हूं कि आज के समय में अपराध और अपराधी जितने हाईटेक, सूचना संपन्न और शातिर हो गए हैं, उसमें पुलिस के हाथ थोड़े और मजबूत करने की जरूरत है। हाथ मजबूत करने से आशय यह हुआ कि पुलिस के पास तुरंत फैसला लेने का अधिकार हो, जो वर्तमान प्रणाली में कलेक्टर के पास है। कोरोना के समय हमने ऐसी घटनाएं देखी जब दवा और इंजेक्शन की कालाबाजारी करते पकड़े गए किसी अपराधी पर पुलिस ने राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लगाया लेकिन लंबे समय तक कलेक्टर की ओर से अनुमति नहीं मिलने के कारण अंततः उस अपराधी को जमानत मिल गई।
यह किसी कलेक्टर की निंदा करने की बात नहीं है, लेकिन यहां इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि पुलिस के अधिकारी के पास सिर्फ पुलिस विभाग की जिम्मेदारी ही रहती है, जबकि कलेक्टर तो जिले के लगभग सभी विभागों का प्रधान होता है। उसे सार्वजनिक कार्यक्रम, मीटिंग और सचिवालय सभी जगह बराबर ध्यान देना होता है।
जबकि पुलिस कप्तान की निगाह मुख्य रूप से जिले की कानून व्यवस्था पर रहती है। ऐसे में पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू करके कानून व्यवस्था का पूरा जिम्मा पुलिस कमिश्नर को देना एक स्वागत योग्य कदम ही माना जाना चाहिए।
यह भी सच है कि सिविल सोसायटी यह प्रश्न उठा सकती है कि कहीं कमिश्नर प्रणाली से हम पुलिस स्टेट की तरफ तो नहीं बढ़ जाएंगे। तो ऐसे में यह याद रखना चाहिए कि चाहे पुलिस अधिकारी हो या आईएएस अधिकारी दोनों ही यूपीएससी का एक ही इम्तिहान पास करके अपनी-अपनी सेवाओं में आते हैं। दोनों को ही भारत के संविधान और राज्य की सरकार के अधीन काम करना होता है। वैसे भी अब वह जमाना नहीं रहा, जब पुलिस चुपचाप कोई काम कर ले और किसी को कानों कान भनक तक नहीं हो। आज मीडिया मुस्तैद है, जगह जगह सीसीटीवी कैमरे लगे हैं और लोग भी हर घटना दुर्घटना की रिकॉर्डिंग किसी न किसी रूप में कर ही लेते हैं। ऐसे में पुलिस कमिश्नर सिस्टम शुरू होते ही इसको बहुत ज्यादा शक की निगाह से नहीं देखना चाहिए।
बल्कि मैं तो कहूंगा यह वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के लिए अपना प्रशासनिक स्वरूप और मानवीय संवेदनाएं दिखाने का एक बेहतरीन मौका है। अगर इंदौर और भोपाल में पुलिस कमिश्नर प्रणाली कामयाब रहती है तो यह प्रदेश के अन्य बड़े शहरों में भी पुलिस की नई भूमिका के लिए दरवाजा खोलेगी।
इस प्रणाली की सफलता इस बात पर भी निर्भर करेगी कि मौजूदा नौकरशाही इस काम में पुलिस प्रशासन को कितना सहयोग देती है। अगर ब्यूरोक्रेसी पुलिस कमिश्नर प्रणाली को अपना पूरा सहयोग दें तो इस प्रणाली के कामयाब होने में कोई बाधा नहीं आनी चाहिए। मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरों में जो व्यवस्था कामयाब है, वह भोपाल और इंदौर में भी कामयाब होगी।
बल्कि मैं तो यह कहूंगा कि इसे पुलिस सुधार की दिशा में एक बड़े कदम के तौर पर देखना चाहिए और पुलिस अधिकारियों को भी इस व्यवस्था में इस तरह से काम करना चाहिए ताकि कोई विवाद उत्पन्न ना हो और यह प्रदेश में कानून व्यवस्था के नए ढांचे का मार्ग प्रशस्त करे।