अरविंद दुबे ( वरिष्ठ पत्रकार ) ( लेखक विदेश मामलों के जानकार हैं। )
पश्चिम एशिया में अमेरिका की मुश्किलें लगातार बढ़ती चली जा रही हैं। एक तरफ अमेरिका विरोधी चरमपंथी ताकतें सर उठा रही हैं तो वही वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की नीतियों की वजह से अमेरिका को फायदा कम नुकसान होता हुआ नजर आ रहा है।इस्राइल,यूएई, बहरीन और सऊदी अरब के बीच हो रहे शांति समझौते और सैन्य गठबंधन भी अमेरिका के खिलाफ जाते हुए नजर आ रहे हैं। इधर ईरान ने भी परमाणु बम इस्तेमाल ना करने की अपनी रणनीति को भी बदल दिया है जिससे पश्चिम एशिया में मौजूद अमेरिकी सेना को बड़ा खतरा हो गया है। जनवरी 2021 मे जब जो बिडेन अमेरिका के नए राष्ट्रपति की शपथ लेंगे तब उनके सामने पश्चिम एशिया ही सबसे बड़ी समस्या बन कर उभरेगा। इसमें खास बात यह है कि तब तक अमेरिका की स्थिति पश्चिम एशिया में और कमजोर हो जाएगी। अमेरिका की कमजोर होती परिस्थिति की वजह से भारत,रूस और चीन पश्चिम एशिया में अपनी भूमिका को मजबूत बना रहे हैं। इस पर एक रिपोर्ट।
साल 1991 मे कुवैत से इराकी सेना को खदेड़ने के लिए शुरू किए गए खाड़ी युद्ध को कोई नहीं भूला होगा तब अमेरिका और नाटो गठबंधन की सेनाओं ने पश्चिम एशिया के देशों का साथ देते हुए पूरे सैन्य साजो सामान के साथ इराक पर हमला बोला था और उसे नेस्तनाबूद कर कुवैत को वापस उसकी स्वतंत्रता दिलाई थी। अमेरिका की इस भूमिका से सऊदी अरब सहित पश्चिमी एशिया के तमाम मुस्लिम देशों ने अमेरिका को अपनी सुरक्षा का जिम्मा दे दिया था बदले में अमेरिका को खुला व्यापार करने की छूट मिली हुई थी और साथ ही सुरक्षा के एवज में अमेरिका को भारी-भरकम रकम भी दी जा रही थी। इस जिम्मेदारी की वजह से पश्चिम एशिया के देशों के आपसी युद्ध में भी अमेरिका को कई बार उलझना पड़ा। ऐसे में अमेरिका को काफी नुकसान भी उठाना पड़ा और उसके सैनिकों की जान भी गई। दूसरे देशों की धरती पर युद्ध लड़ने में हो रहे नुकसान से अमेरिकी लोग काफी नाराज हो रहे हैं और अमरीकी लोगों ने सरकार पर दबाव बनाना शुरू कर दिया था कि अब अमेरिका को दूसरे देशों की धरती पर जाकर युद्ध नहीं लड़ना चाहिए। अपने ही लोगों के दबाव की वजह से पहले बराक ओबामा और उसके बाद राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को पश्चिम एशिया के लिए अपनी नीति में परिवर्तन करना पड़ा। सबसे पहले अमेरिका ने अपने देश के तेल उत्पादन को सबसे ज्यादा बढ़ाया और विश्व का सबसे बड़ा तेल उत्पादक देश बन गया। तेल और गैस पर खाडी देशों पर निर्भरता खत्म होने के बाद अमेरिकी प्रशासन ने पश्चिम एशिया के देशों खासतौर पर सऊदी अरब और बहरीन की सुरक्षा के लिए तैनात अपने सैनिकों को इन देशों से बाहर निकालना शुरू कर दिया। इधर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने सऊदी अरब से भी साफ- साफ कह दिया कि उसकी सुरक्षा के एवज में उसे अमेरिका को कीमत चुकानी होगी, हम हथियार देंगे लेकिन अपनी शर्तों पर डोनाल्ड ट्रंप के इस बयान ने तो जैसे तूफान ही ला दिया। पश्चिम एशिया के देशों को समझ में आ गया कि अमेरिका उनके हितों की रक्षा के लिए छोटे या बड़े युद्ध में शामिल नहीं होगा। इसका उदाहरण भी साफ तौर पर सामने देखने को मिला जब 14 सितंबर 2019 को ईरानी वायु सेना ने सऊदी अरब के महत्वपूर्ण ऑयल फील्ड में क्रूज मिसाइल से हमला किया तब सऊदी अरब ने उम्मीद जताई थी कि अमेरिका भी ईरान को ऐसा ही जवाब देगा लेकिन अमेरिका ने ईरान पर हमला नहीं किया उल्टे डोनाल्ड ट्रंप ने अरब देशों को सलाह दी कि वे ईरान से लड़ने के लिए आपसी सहयोग पर ज्यादा ध्यान दें। अमेरिका के इस व्यवहार से नाराज सऊदी अरब, बहरीन, यूएई ने आपात बैठक बुलाई और तुरंत ही एक सैन्य गठबंधन करने के लिए मसौदा तैयार किया लेकिन पश्चिम एशिया में कोई भी समझौता इसराइल के हस्तक्षेप के बिना संभव नहीं था, ऐसे में सऊदी अरब ने इसराइल के साथ शांति समझौता किया और एक दूसरे की संप्रभुता की रक्षा करने के लिए सैन्य मदद की पेशकश की। इसका सीधा फायदा दोनों देशों को हुया है क्योंकि दोनों ही देश शिया चरमपंथी गुटों के हमलों से परेशान हैं। इसराइल ने एक कदम आगे बढ़ाते हुए यूएई और बहरीन से भी शांति समझौता कर दशकों से चली आ रही रंजिश को समाप्त करने के लिए कदम आगे बढ़ा दिए हैं। खास बात यह है कि इन शांति समझौतों और सैन्य गठबंधन में अमेरिका के लिए कोई स्थान नहीं रखा गया है। पश्चिम एशिया के चारों देश ईरान के किसी भी संभावित हमले से निपटने के लिए एकजुट हो गए है। इन देशों को ईरान की बैलिस्टिक मिसाइल से उतना खतरा नहीं है जितना कि ईरानी गाइडेड मिसाइल से है। ईरान की गाइडेड मिसाइल की जद में इन चारों देशों में बने अमेरिकी सेना के ठिकाने भी आते हैं ऐसे में अमेरिका ईरान के सामने बचाव की स्थिति में नजर आ रहा है और पश्चिम एशिया में अमेरिका की स्थिति ही कमजोर हो गई है। अब धीरे-धीरे अमेरिका इन देशों से अपने सैनिक अड्डों को समाप्त कर रहा है।
भारत,रूस चीन बना रहे हैं पैठ
अमेरिका की खराब स्थिति को देखते हुए और रूस और चीन पश्चिम एशिया के देशों को सैन्य मदद देने का प्रस्ताव भेज रहे हैं साल 2019 में रूस के राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन ने सऊदी अरब का दौरा किया और सऊदी अरब के साथ सैन्य सहयोग की पेशकश की। रूस ने दुनिया की सबसे बेहतरीन एस 400 मिसाइल रोधी सिस्टम सऊदी अरब को देने के लिए समझौते पर हस्ताक्षर किए। यह पहला मौका था जब कोई रूसी राष्ट्रपति सऊदी अरब की यात्रा पर आया था। इसके साथ ही रूस ने सऊदी अरब को बेहतरीन किस्म की मिसाइलें देने के लिए भी बातचीत शुरू की है। इधर सऊदी अरब के संबंध चीन से भी काफी बेहतर है। चीन ने भी सऊदी अरब में बड़े निवेश के लिए प्रस्ताव रखा था लेकिन अमेरिका की गहरी आपत्ति के बाद सऊदी अरब ने फिलहाल चीन के प्रस्ताव पर कोई जवाब नहीं दिया है लेकिन रूस की बढ़ती गतिविधियां अमेरिका पर भारी पड़ रही है। रूस ने सऊदी अरब, बहरीन, यूएई और कतर जैसे देशों में व्यापार बढ़ाने के लिए बड़े समझौते किए हैं। ज्यादातर समझौते उन क्षेत्रों में किए हैं जहां पर पहले से ही अमेरिकी कंपनियां काम कर रही हैं ऐसे में अब उन अमेरिकी कंपनियों को इन देशों में अपना कारोबार बंद करना पड़ रहा है इससे अमेरिका को आर्थिक नुकसान उठाना पड़ रहा है साथ ही अमेरिकियों की नौकरी भी जा रही है।
भारत का बढता प्रभाव
पश्चिम एशिया के इस बदलाव पर भारत की भी सीधी नजर है। भारत ने भी सऊदी अरब के साथ अनेक समझौते किए हैं हालांकि समझौते ज्यादातर व्यापारिक हैं लेकिन इनका सीधा असर अरब देशों की विदेश नीति पर पड़ेगा। हाल ही में भारत और सऊदी अरब ने सैन्य समझौतों पर हस्ताक्षर किए हैं जिसके तहत भारतीय थल सेना सऊदी अरब के सैनिकों को ट्रेनिंग देगी और आधुनिक सैन्य साजो सामान भी उपलब्ध कराया जाएगा। जाहिर है कि भारत अपने देश में बन रहे भारी युद्धक हथियारों को बेचने के लिए अरब देशों के बाजार में प्रवेश कर रहा है। इसके लिए भारत और रूस एक साथ इन देशों के साथ समझौते कर रहे हैं। भारत ने इजरायल, बहरीन, सऊदी अरब और यूएई के सैन्य गठबंधन में शामिल होने की भी इच्छा जाहिर की है इस गठबंधन में शामिल होने से भारत को आर्थिक लाभ होगा साथ ही वह इन देशों को सुरक्षा की गारंटी भी दे सकता है जो कि अभी तक अमेरिका के द्वारा दी जाती थी ऐसे में पश्चिम एशिया में अमेरिका को विस्थापित कर के भारत और रूस अपनी स्थिति को मजबूत बना रहे हैं।
बदलाव की ओर सउदी अरब
सऊदी अरब में बदलाव की हवा तेजी से चल रही है विजन 2030 के तहत सऊदी अरब विश्व का सबसे आधुनिकतम देश बनने के प्रयास में हैं इसके तहत वह चाहता है कि रूस उसके इस प्रोजेक्ट में शामिल हो और आर्थिक रुप से सहयोग करें। रूस ने सऊदी अरब के इस प्रस्ताव पर अपनी सहमति जता दी है। यहां पर भी अमेरिका के लिए कोई स्थान नहीं रखा गया है। सऊदी अरब की तरह ही पश्चिम एशिया के अन्य मुस्लिम देश भी ऐसे ही कदम उठा रहे हैं जिससे अमेरिका पश्चिम एशिया में दिन-ब-दिन कमजोर होता जा रहा है। रूस की इस रणनीति से पश्चिम एशिया का परिदृश्य तेजी से बदल रहा है।
नये राष्ट्र्पति के लिये चुनौती बना पश्चिम एशिया
जनवरी माह मे शपथ लेने के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाईडेन के सामने सबसे बड़ी समस्या ईरान के साथ परमाणु समझौता रहेगी। ईरान ने घोषणा की है कि अमेरिका के द्वारा लगाए गए प्रतिबंध जल्द नहीं हटाए गए तो वह परमाणु हथियार बनाने का काम दोबारा शुरू कर देगा। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाईडेन के लिए ईरान को मनाना इतना आसान नहीं होगा क्योंकि नए राष्ट्रपति यदि ईरान के प्रति नरम रवैया रखेंगे तो शेष अरब देश अमेरिका से सीधे तौर पर नाराज हो जाएंगे और अमेरिकी सेनाओं के लिए एक बड़ा खतरा बन जाएगा। टर्की के साथ चल रही तनातनी की वजह से अक्सर दोनों देशों की सेनाओं में टकराव की स्थिति बन जाती है इसे रोकना भी जो बाईडेन के लिए बेहद मुश्किल होगा क्योंकि टर्की के साथ रूस पूरी मजबूती के साथ खड़ा है। इधर सऊदी अरब और उसके सहयोगी देशों को वापस अमेरिकी खेमे में लाना भी नए राष्ट्रपति के लिए बड़ी चुनौती है क्योंकि डोनाल्ड ट्रंप ने अपनी मनमौजी विदेश नीति की वजह से इन देशों को खासा नाराज करके रखा हुआ है ऐसे में जो बाईडेन और उनकी टीम के लिए पश्चिम एशिया एक बड़ी चुनौती बन जाएगा।
अमेरिकी आतंक से मुक्त हो रहे हैं खाडी देश
अमेरिका के सबसे महत्वपूर्ण देश इसराइल ने काफी पहले से ही अमेरिका के प्रति निर्भरता कम कर दी थी उसने अपने सबसे पुराने दुश्मन रूस से संबंध सुधारना शुरू कर दिए थे इस वजह से पश्चिम एशिया की पूरी गतिविधियां बदल गई है। अमेरिकी अत्याधुनिक युद्धपोत भले ही गल्फ देशों के समुद्र में गश्त कर रहे हैं लेकिन अब इन युद्ध पोतों से अरब देशों को घबराहट नहीं होती है। अरब देश नहीं चाहते कि अमेरिकी अब उनका व्यवसायिक इस्तेमाल कर सकें.. यही वजह है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद पश्चिम एशिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले अमेरिका को अब सबसे बुरे दौर से गुजरना पड़ रहा है। अमेरिका भले ही अरब देशों को ईरान का डर बता कर उन्हें भयभीत रखना चाहता है लेकिन अरब देश ने इसका भी हल ढूंढ लिया है। यही वजह है कि सऊदी अरब सहित अरब देश अब एकजुट होकर खुद एक ताकत बन रहे हैं और उन्हें मजबूती देने के लिए रूस और भारत इन देशों में अपनी गतिविधियों को तेज कर रहे हैं। अमेरिका पश्चिम देशों में अपने आप को असहाय और कमजोर पा रहा है। खास बात यह है कि अमेरिकी प्रशासन भी अब गल्फ देशों को अहमियत नहीं दे रहा है क्योंकि अब उसके पास गैस और तेल का बेपनाह स्टॉक मौजूद है और अमेरिका अब इन देशों पर निर्भर नहीं है।अमेरिका के लिए पश्चिम एशिया बीते दिनों की बात हो गई है। ( ये लेखक के निजी विचार हैं)