{किश्त 101}
आठ विधानसभा क्षेत्रों वाला बस्तर लोक सभा क्षेत्र अपनी आदिवासी आबादी, प्राकृतिक सुंदरता के कारण अपना अलग महत्व रखता है,काकतीय राजवंश के शासन,ब्रिटिश उपनिवेश वाद के खिलाफ प्रतिरोध सहित समृद्ध इतिहास के साथ,सांस्कृतिक विरासत और लचीलेपन का प्रतीक बना हुआ है। साक्षरता का प्रतिशत कम होने की बात होती है,आदिवासियों को आधुनिक भारत के विकास और बदलते राजनीतिक समीकरणोँ से दूर बताया जाता है पर इतिहास गवाह है आजादी के बाद बस्तर जैसे आदिवासी क्षेत्र ने अभी तक 5 बार निर्दलीय सांसद चुनकर भेजा है।आजादी के बाद पहलेलोक सभा चुनाव 1952 में बस्तर से एक स्वतंत्र उम्मीद वार मुचाकी कोसा की जीत हुई थी।खास बात ये थी कि मुचाकी ने 83.05% वोट हासिल करके इतिहास रच दिया था।जो एक रिकॉर्ड है, 1952 के पहले चुनाव में बस्तर के महाराजा प्रवीर चंद भंजदेव ने मुचाकी कोसा को निर्दलीय चुनाव लड़ाया और वह सांसद निर्वाचित हुए।देश के पहले आम चुनाव में कांग्रेस को समझ आ गया था कि राजमहल का समर्थन लिये बिना आगे का रास्ता बस्तर में काफी कठिन होगा।अत:भंजदेव से दूरियां कम करते हुए कांग्रेस ने उन्हें भरोसे में लेकर पार्टी में शामिल कर लिया।यह1957 की बात है।इस चुनाव में राजमहल के समर्थन में आने से कांग्रेस के सुरती क्रिस्टैया अगला चुनाव जीतने में सफल हुए,लेकिन प्रवीर और कांग्रेस के बीच जल्दी की अलगाव हो गया।प्रवीर चंद के जिंदा रहते,1966 में उनके निधन के बाद हुए चुनावों में भी कांग्रेस को महल समर्थक निर्दलीयों से हार मिली।1957 में कांग्रेस को यहां पहली जीत सुरती किस्तैयाने दिलाई, हालांकि इसे बाद के 3 चुनावों में निर्दलीय उम्मीदवारों की जीत हुई।1962 में लखमू भवानी की जीत के साथ निर्दलीय की जीत का सिलसिला फिर शुरू हुआ, 1967 में एक अन्य स्वतंत्र झाड़ूराम सुंदर लाल विजयी हुए वहीं,उसके 1971 के लोस चुनाव में लंबोदर बलियार चुनाव जीते वो भी निर्दलीय उम्मीदवार थे।वहीं 1996 के लोकसभा चुनावों में,निर्दलीय उम्मीद वार के रूप में चुनाव लड़ रहे महेंद्र कर्मा ने कुल 124,322 वोट हासिल किए थे।कांग्रेस के मानकू राम सोढ़ी ने 110,265 वोट हासिल किए थे जबकि भाजपा ने राजाराम टोडेम को मैदान में उतारा,जिन्हें 84,523 वोट मिले थे।असल जैन हवाला मामले में नाम आने पर ग्वालियर के महाराजा माधवराव सिंधिया ने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।1996 में टिकट न मिलने पर कांग्रेस छोड़कर ‘मप्र विकास कांग्रेस’ नामक नई पार्टी बनाई,इसी पार्टी से महेन्द्र कर्मा भी चुनाव लड़े थे,इस पार्टी को चुनाव चिन्ह नहीं मिला था इसलिए निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ा था, एचडी देवेगौड़ा,इंद्रकुमार गुजराल के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का हिस्सा सिंधिया बने थे। 1998 में फिर कांग्रेस में शामिल हो गए,साथ ही महेन्द्र कर्मा की कॉंग्रेस में वापसी हो गई और विमान हादसे में मृत्यु होने तक माधवराव सिंघिया और नक्सली वारदात में हत्या होने तक महेंद्र कर्मा कांग्रेस में ही रहे।